"नाम" नागेश जय गुरुदेव (दीपक बापू)

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

थोड़ी सी ज्ञान की बात भाग ६ - Thodi Si Gyan Ki Baat Bhaag - 6

थोड़ी सी ज्ञान की बात भाग ६
Thodi Si Gyan Ki Baat Part - 6

हु बोलू पछि
मुख खोलू पछि
प्रथम मने आचरण आपजे

इसका अर्थ पूछना था किसी को पता हो तो??

मुझे पता है आप सभी को इसका अर्थ पता होगा ही होगा! तो चलो देखते है की आप के जवाब जो आये कुछ इस प्रकार थे जैसा की मैंने अपने पहले के आर्टिकल्स में लिखा है की कोई भी बात बोलने के पहले या तो मेरे मुख खोलने के पहले मुझे या मुझमे वह आचरण दिखना चाहिए जिससे मैं अपने आप को सही साबित कर सकु, मुझे यदि वह आचरण में नहीं देख कर सामने वाला मेरी बाते सुनेगा तो ना सिर्फ मुझे ढोंगी समझेगा अपितु मेरी कही हुयी सही बात को भी गलत समझेगा!

 सही बात है आप सभी की सोच सही है मगर एक बार फिर इसी लाइन को देखिये! अब मैं कहता हूँ की इसका अर्थ यह है की
"हु बोलू पछि" अर्थात "मैं बोल लू उसके बाद!"
"मुख खोलू पछी" अर्थात "मेरा खुल जाए उसके बाद!"
"प्रथम मने आचरण आपजे" अर्थात "सब से पहले मुझे फलस्वरूप आचरण देना!"

अब मुझे बताओ जो मैंने अब लिखा है क्या यह गलत है!

       नहीं है तर्क वितरक की दृष्टि से लोग अलग अलग मान्यता रखेंगे परंतु लिखी हुयी बातो को जिस तरह से जिस तर्क से मैं प्रस्तुत करूँगा आप के सामने वही सर्वप्रथम मान्य होगा! या जिसने भी इसके ऊपर शोध कर के सर्वप्रथम जो बोला वही मान्य होगा!

        हमारी कमी ही यही है! की हम जो भी सोचते है जो भी बोलते है जो भी करते है उसमे हमारे खुद की बुद्धि से ज्यादा हमारी खुद के निर्णय से ज्यादा घर, समाज, धर्म और नैतिकता का बल ज्यादा होता है!

    हम भगवान् को मानते है क्यों? क्योंकि जब हम पैदा हुए तब जैसे ही हमने बोलना शुरू किया तो माता और पिता ने "जय जय" बोलना शुरू करवाया, मूर्ति के आगे हाथ जोड़ के खड़ा रहने सिखाया, भगवान् मुझे बुद्धि देना ऐसी याचना करनी सिखाई, हमें इसी समाज और हमारे परिवार ने बताया की ये कृष्ण है, ये राम है, ये गणपति है, ये नवरात्री है, ये नवदुर्गा की मूर्ति है, ये भगवान् वह भगवान्, सत्कर्म - दुष्कर्म, सत्य - असत्य, हिंसा - अहिंसा, श्रद्धा - अश्रद्धा का पाठ पढ़ाया!

  हर तरफ से हम घिरे हुए है, मंदिर में जाने पे मन की गति कही और होती है और आँखे कही और होती है मुँह पे कुछ और होता है उद्देश्य कुछ और ही होता है! इसे क्या समझेंगे?? मंदिर में जाने वाला व्यक्ति आप यकीन मानिये मूर्ति के समकक्ष खड़े रहकर भी झूठ ही बोलता है! ये कैसी श्रद्धा है? क्या फायदा ऐसी रीती का ऐसी रिवाजो का जिसे सिर्फ तुम दुनिया को दिखाने के लिए समाज में बने रहने के लिए ही निभा भर रहे हो! भगवान् के सामने खड़े हो कर भी तुम भगवान् को धोका देते हो!
क्योंकि तुम्हारे मन के भीतर कहीं न कहीं ये बात, ये सच छुपा हुआ है की इस मूर्ति से मेरा कुछ नहीं होना है! मैं सही कर या गलत कर उसका फायदा भी मुझे ही होना है और नुक्सान भी मुझे ही होना है! भगवान् मूर्तियों में नहीं है वह तो तुम्हारे हृदय में ही बसा हुआ है! ये कौन सा भगवान् है? जो ह्रदय में बसा है? क्या वह राम है? क्या वह कृष्ण है? चामुंडा माता है, काली माता है, गणेश है, शिव है? कौन सा भगवान् है ये जो तुम्हारे ह्रदय के भीतर बसा है जो तुम्हे महसूस भी कभी कभी हो जाता है मगर अलग - अलग रूप में अलग - अलग परिस्थितियों में आखिर है कौन ये भगवान्? जिसे चर्मचक्षुओं से देखना मुमकिन नहीं! ध्यान में भी देखना मुमकिन नहीं सिर्फ महसूश किया जा सकता है! तो है कौन ये और अगर ये भगवान् है तो राम लक्ष्मण, हनुमान, गणेश, ये सब क्या है???????

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