अब इसके आगे हम गुरु के वखान को अपने शब्दों में उतरने की कोशिश करेंगे
गुरु
गुरु तारो पार न पायो पृथ्वी ना मालिक तमे तारो तो अमे तरिये
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरा
गुरु साक्षात् परब्रह्मा! तस्मे श्री गुरुवे नमः!
गुरु बिन कछु उपजे नहीं! भगति वगति को मूल!
रवि कहे पत्थर बोया खेत में! तो आवे नहीं फगुनी फूल!
गुरु गूंगा, गुरु बावरा, गुरु देवन का देव, हुए जो चले में शक्ति तो करे गुरु की सेव!
गुरु मिला तो सब कुछ मिला और न मिलिया कोय!
क्योंकि सूद दारा और लक्ष्मी! ये तो पापी जन के घर में भी होये!
सब धरती कागद करू, लेखनी सब वनराय
पुरे समुद्र की स्याही करू, तोय गुरु गुण लिखा न जाए!
और न जाने क्या क्या कह गए संत लोग और यकीन मानिये इसमें एक भी बाते झूठी नहीं है! हम जितना चाहे उतना लिखते ही जाए मगर गुरु की महिमा आंक नहीं सकते है उसको सिर्फ एहसास में ला सकते है! उसकी अनुभूति कर सकते है! या किसी और के अनुभूति किसी और के अनुभव को सुन भर ही सकते है! माप नहीं सकते है! गुरु के होने की, गुरु के महात्म्य की! कोई ऐसा व्यक्ति इस दुनिया में नहीं होगा जो गुरु के महात्म्य को पूरा पूरा बखान कर दे! कोई ऐसा नहीं कह सकता है की मैं जो कह रहा हूँ गुरु बस उतना ही है! उसके बाहर नहीं! आप के दिमाग की कैपेसिटी! आप की सोच जितनी है! उतना ही आप बोल सकते है! लिख सकते है! मगर गुरु तो उसके पार है! जितना निकलोगे उतना कम ही लगेगा! गुरु आकाश के समान है! अनन्त अपार!
मुझसे जितना हो सकता है संतो के शब्दों उनकी वाणी का सहारा लेके मैं अपने तरफ से आप को अपने सहज शब्दों में साझा करने की कोशिश कर रहा हूँ पूरा तो नहीं कह सकता हूँ इसको पर मेरी नज़र में जो कुछ है उसमे से कुछ अंश यहाँ रखने की कोशिश कर रहा हूँ!
गुरु! देहधारी गुरु की बात हम यहाँ कर रहे है! गुरु वह परम तत्व है जो सभी तत्वों से परिपूर्ण ही नहीं अपितु उनके भी कई ज्यादा ऊपर है! गुरु कर्मो के ऊपर है! गुरु पांच पच्चीस के पर है! इन सभी के ऊपर उसकी विजय है! बस इतना सा लिखना ही गुरु को हमारी दृष्टि में कहा से कहा ले गया जिसे हम अभी नज़रो में अपने सामने देख रहे थे अब उसके साथ नज़र मिला पाना भी मुश्किल लग रहा है! ये बाते कोई भी गुरुमुखी व्यक्ति सहज ही समझ जाएगा! क्योंकि उसके पास गुरु की अनुभूति है! गुरु के शब्द उसके पास पड़े है! उसकी झोली में गुरु की कृपा भरी पड़ी है! वह झोली खाली नहीं!
गुरु हमारे अनन्त विचारों का एक जवाब है! उसके एक एक शब्द एक एक दृष्टि या कहे की दृष्टान्त हमारे अंदर कितने ही विचारों को जन्मा देती है और उनका समाधान भी करती है! कई प्रकार के बंधनो से गुरु का एक शब्द हमें मुक्ति दे देता है! मुक्त कर देता है! कोई सीमा ही नहीं! गुरु के गुणों की!
गुरु के लिए एक साधारण सा उदाहरण है! मेरे गुरु "परम पूज्य श्री दीपक बापू" उनकी वाणी के चलते हम उन्हें प्रेम पूर्वक दीपदान भी कहते है! एक बार जब ये सभी बाते मेरे इर्द गिर्द घूम रही थी मैं इनमे उतरता जा रहा था! परम तत्व, पांच पच्चीस, जंगल, शुन्य शिखर, गगन गढ़ क्या है? क्या है परम तत्व? क्या हम इसे देख सकते है? ध्यान क्या है! ये योग है! तो क्या योग में इतनी शक्ति है? क्या ये हमें हमारे मार्ग पे ले जा सकता है? ऐसे ही कई सारे सवाल मेरे दिमाग में चल रहे थे! वाणियों में अजीब अजीब तरह के शब्द, नाद बूँद, गजर, ये सभी मेरे प्रश्नों का हिस्सा बनते जा रहे थे! कुछ तो ऐसे बचकाने प्रश्न होते थे की बोल भी नहीं सकता हूँ! और अपने गुरु श्री दीपक बापू के सामने मैंने तो सवालों की बारिश ही जैसे कर दी हो! इतने सारे सवालो का सिर्फ एक शब्द में जवाब! जो सवाल थे उनको दो भागो में बाँट दिया एक ध्यान से सम्बंधित था! दूसरे बड़े कॉमन क्वेश्चन थे की जिनके लिए उनका होना या नहीं होना! तो उन्होंने इस दूसरे सवाल के लिए सिर्फ इतना ही कहा की कॉमन बातो में कभी क्वेश्चन नहीं होना चाहिए! बात इतनी सी थी मगर मेरे समझ में वह आगयी क्योंकि गुरु जानता है! किसे कैसे समझाना है! अब इस बात का और एक उदाहरण देता हूँ! "केरम" इस खेल से लोग भली भाँती परिचित है! अब खेलने के समय यदि खिलाडी कहे की इसमें काली सफ़ेद गोटिया ही क्यों है! नीली पिली क्यों नहीं कोई और रंग क्यों नहीं? ९ ९ ही क्यों है! ८ या १० क्यों नहीं! लाल गोटी क्यों है! उसकी क्या जरुरत थी! ४ खाने क्यों बने हुए है ज्यादा क्यों नहीं कम क्यों नहीं! किसने इस खेल का निर्माण किया है! किस कमेटी ने इन सभी बातो का निर्णय लिया और उस कमेटी को किसने पारित किया! उसे सही किसने किसने ठहराया पहले ये सभी बातो का खुलासा करो तभी मैं खेलूंगा! तो दोस्तों सीधा सीधा उसको खेल के बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा! क्योंकि खेल का नियम है! जो चला आ रहा है! और ये कॉमन है! कुछ फेरफार होते है! नियम में! मगर सिद्धांत सिद्धांत ही रहने वाला है! और ये सभी बाते कॉमन में आती है! इनके प्रति आप का सवाल बचकाना तो है ही प्लस दूसरों के मजे को भी ख़राब करता है!
दूसरे शब्दों में ऐसा भी देख सकते है! की कोई गाडी हमें चलानी सीखनी है! तो उसे चलाना ही सीखना चाहिए! ना की उसका इन्वेंशन किसने किया! गियर ब्रेक हैंडल कहा से निकला किसने बनाया! ये सब क्यों है वह क्यों नहीं ये सभी में अगर हम फंसे रहेंगे तो कुछ नहीं कर पाएंगे! और इन बातो की कोई अहमियत उस समय होती भी नहीं है! बाइक चलाने सिखने के लिए बाइक की जरुरत है! जो आप के सामने है! और आप को सीखना है! उसमे क्या वस्तु कहाँ लगी है! और कैसे उसे कंट्रोल करना है! एक बार इतना कर लीजिए बाद में आप को स्वयं किसी और बात की जानकारी का इंटरेस्ट ही नहीं रहेगा! और ये बाते वैसे भी लाखो में कोई एक शायद ही जानता हो! आपको बाइक सीखनी है! तो जो चला रहा है वह आप को बता सकता है! आप उसको ये सभी सवाल करेंगे तो आप जहां थे वही रह जायेंगे! ठीक उसी प्रकार गुरु है! ध्यान की अवस्था! ध्यान कैसे करना वह सब कुछ वह बताता है! वाणी के मरहम को वह समझाता है! वह आपको सही दिशा दिखता है! मगर इस दिशा में इस रस्ते में आप को चलना स्वयं है! वह अपने आपको आप के लिए हमेशा तैयार रखेगा और हर कदम पे आप के साथ ही होगा आप के अंदर ही बैठा रहेगा! जरूरत है आप को अपने विश्वास को बनाए रखने की और सही तरीके से उसकी बातो को मानने की!
ध्यान अवस्था में निहित गुरु जो ध्यान का सही मतलब और उसको सही तरीके से करना जानता है! वो आप को रास्ता बता सकता है चलने के पहले ही उस ध्यान की क्रिया में कितना टाइम लगेगा ध्यान करने पे नहीं मिला तो क्या करने का? ध्यान में जो प्रकाश दीखता है वह मनगढंत तो नहीं है ये सब कहीं हमारे दिमाग का बनाया हुआ खेल तो नहीं है साइंटिफिक रेअसोंस है इनके पीछे ये सब धोखा है स्वप्न है ये सब सवाल फालतू है कोई अर्थ नहीं है इनका ध्यान लगाओ महसूस करो आपको खुद अनुभूति होगी सच और झूठ का पर्दा उठेगा मगर ज्यादातर लोग इन बातो को हज़म नहीं कर पाते है क्यों की उनके पास गुरु होता नहीं है अगर होता है तो पूरा नहीं होता है क्योकि पूरा गुरु शिष्य के हर बात का जवाब जानता है वह उन हर जगह से गुज़र चूका होता है जहां शिस्य आज चलना चाहता है एक लेवल तक गुरु हर उन सवालो का जवाब दे सकता ही है जहां तक शिष्य को जरुरत है उसके बाद आगे बढ़ना शिष्य का काम है!
ज्यादातर देखा गया है कई उदाहरण है देखने के लिए जहां शिष्य गुरु से आगे निकल गया मगर क्या इसका मतलब गुरु काम पड़ गया?? नहीं गुरु ने ही कृपा की है!, गुरु ने ही मार्गदर्शन दिया है जिसके कारन वह लोग आज उस मुकाम पर पहुंच पाए है! और यही कारन है की गुरु की महत्ता कभी कम नहीं होती है!..
१) गुरु तारो पार न पायो, पृथ्वी न मालिक तमे तारो तो अमे तरिये!
इन शब्दों को सब से पहले लिखा है मैंने यहाँ पे इसका मतलब देखने में और समझने में बहुत ही साधारण सा लगता है पर यहाँ बात अगर देखि जाए तो त्याग की है अब आप सोचेंगे की त्याग की बात क्या है! किस त्याग की बात हो रही है! एक बार फिर से देखिये "गुरु तारो पार न पायो, पृथ्वी ना मालिक तमे तारो तो अमे तरिये!" वाह क्या बात है!! बास इस एक लाइन की मधुरता, त्याग, समर्पण की भावना! इसको सार में आप को अपने शब्दों में समझाने की कोशिश करता हूँ की गुरु जिसे हमने मान है सिर्फ मान भर लेने से ये या बोल देने भर से हम पूर्ण नहीं होते है इस पंक्ति में पृथ्वी शब्द का प्रयोग हुआ है और संतो की भाषा में पृथ्वी का मतलब होता है शरीर! हमारी देह!, सभी जानते है की संतो में जो भी बाते कही है वह सभी की सभी अपने आप में बेजोड़ है और हमारे शारीर के अंदर ही मौजूद है!इस पंक्ति में भी उन्होंने पृथ्वी शब्द का प्रयोग हमारे शरीर को लेकर ही किया है की गुरु करो तो अपने आप को पूरी तरह से उसके हाथ में सौप दो! पूरी तरह से उसके प्रति सुपुर्द हो जाओ उसे ही अपना मालिक समझ लो! और सभी जानते है की मालिक की हर बात माननी ही पड़ती है तो ठीक वैसे ही उसकी हर बात को मानो, उसके हर एक वचन शब्द को आदेश मानो और पूरा करो! वह ही तुम्हे तारेगा, भव पार उतारेगा!, वह गुणों का भण्डार है, उसके गुणों की कोई संख्या नहीं है, उसमे उदारता की कोई सीमा नहीं है! त्याग में उसके जैसा कोई नहीं है! उसके पार पाना मुश्किल है! उसकी छत्र छाया में ही हमारा उद्धार होगा! हमें कभी किसी वस्तु की कमी महसूस नहीं होगी! छोटे में इतना समझ लीजिए की गुरु नाम की माला ही काफी है आप को ८४ से छुड़ाने के लिए!
2) गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः गुरुसाक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुसाक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥
यह एक संस्कृत में लिखा हुआ श्लोक है जो ज्यादातर तो बच्चे बच्चे के जुबान पर होता है! इस श्लोक में बताया गया है की गुरु की उपाधि कोई वर्णन नहीं है! गुरु ही साक्षात् परमेश्वर का स्वरुप है! इसको थोड़ा हम सार में जानने की कोशिश करते है!
इसको समझने के लिए पहले तो हम इसके सन्धिविच्छेद को समझ लेते है! यहाँ लिखा है! की
गुरु ब्रह्मा
गुरु विष्णु
गुरु महेश
गुरु साक्षात् परब्रह्मा
तस्मै श्री गुरुवे नमः!
ब्रह्मा विष्णु महेश
निर्माता, पालक, संहारक
ये तीनो ही परिपूर्ण देवता है इनके सामान गुरु को माना गया है! इसे थोड़ा और विस्तार से देखते है!
ब्रह्मा
ब्रह्मा का कार्य है निर्माण करना उन्होंने इस पृथ्वी(धरातल) का निर्माण किया है! और जैसा मैंने ऊपर पहले ही बताया है की संतो ने इस शारीर को भी पृथ्वी ही कहा है! अब ये तो साधारण सी समझने वाली बात है की गुरु ने हमें जन्म तो नहीं दिया है! परन्तु गुरु हमें बनाता है! समाज में हमें अच्छे इंसान के रूप में हमारा निर्माण करता है! हमारे अंदर जो भी बुराई है! उन सभी राग द्वेषो को कांट छांट कर अलग करता है! और हमें पुनः एक घड़े के तरह निर्मित करता है! घड़ा बनाने वाला घड़े को बाहर से अंदर से ठोक ठोक कर सही रूप सही आकार देता है! कई बार उस घड़े को ठोकने पीटने के बाद उसको समतल करने के बाद में तपाता है भट्टी में उसको आग के अंदर! तब जाकर घड़े में गर्मी नहीं बल्कि शीतलता आ जाती है! ये कमाल था उस घड़े बनाने वाले का उसने मिटटी से घड़ा बनाया है! मिटटी को उसने नहीं बनाया उसने मिटटी को रूप दिया और घड़े का निर्माण किया ठीक उसी प्रकार गुरु हमें हमारी बुराई के साथ स्वीकार कर के उन्हें दूर कर के हमारे अंदर शुद्ध मानव का निर्माण करता है इसीलिए उसे ब्रह्मा की उपाधि दी जाती है!
विष्णु
विष्णु का कार्य है पालन करना! सही रूप से कर्मो को देखते हुए फल को देना! गुरु भी कुछ वैसा ही है! गुरु अपने शिष्य को बुराई से बचाता है! उसे सत्कर्म सत्मार्ग दिखता है! उसपे उसको चलने की प्रेरणा देता है! और न सिर्फ प्रेरणा देता है बल्कि उसका हाथ पकड़ के भी कई बार चलता भी है! पालक की तरह उसमे संस्कार का पुनर्निर्माण करता है! और शिष्य के सही दिशा में आगे बढ़ने पे उसको अपनी योग साधना का फल, अपने ज्ञान का फल वह शिष्य को देता है! इसीलिए गुरु को विष्णु भी कहा जाता है!
महेश
त्रिमूर्ति में इस मुरी का कार्य है संहार करना! गुरु भी हमारे भीतर बैठे राक्षस का संहार करता है! हमारी बुराई को मारता है! हमारे भीतर बैठे भय को खत्म कर देता है! हमे मुक्ति का मार्ग दिखता है! और हमारी आशाओ को जो की कभी खत्म नहीं होती है! उनका नष्ट कर देता है! और इसी संहार के स्वरूप के कारन गुरु को महेश भी कहा जाता है!
गुरु साक्षात् परब्रह्मा!
ब्रह्म और परब्रह्म की व्याख्या मैंने पहले भी अपने लेख में की है जिसे आप हमारे ब्लॉग पे देख सकते है! गुरु को परब्रह्म की उपाधि देने का अर्थ यहाँ कुछ इस तरह से आप देख सकते है! की गुरु ही वह व्यक्ति है जो हमें साक्षात् ब्रह्म के दर्शन उनकी उपस्थिति की अनुभूति हमें करवाता है! गुरु हमारे अंदर से मैं और मेरा निकाल कर समदृष्टि सद्भावना का निर्माण करता है! हमारे अंदर जो ब्रह्म का तत्व खेल कर रहा है! उसका सही स्वरुप दिखा कर के ब्रह्म से भी पर परब्रह्म जहां हम सभी को अंत में मिल जाना ही लक्ष्य है उसका मेल करा देता है! गुरु हमारे अंदर उस परब्रह्म की छवि का आभास करा देता है! अब जो आप को उसकी छवि का आभास करा दे रहा है! आप उसे स्वयं क्या समझेंगे!???
३) गुरु बिन कछु उपजे नहीं! भगति वगति को मूल!
रवि कहे पत्थर बोया खेत में! तो आवे नहीं फगुनी फूल!
गुरु बिन कछु उपजे नहीं! भगति वगति को मूल, रवि कहे पत्थर बोया खेत में! तो आवे नहीं फगुनी फूल! इस पंक्ति में गुरु की महत्ता को दर्शाया गया है की व्यक्ति के जीवन में गुरु का कितना महत्त्व होता है! गुरु के बिना ना ही भक्ति पूरी हो पाती है न ही मुक्ति हो पाती है क्योकि गुरु ही मार्गदर्शन करता है इन सभी बातो में, उसके द्वारा दिखाया गया रास्ता ही अपने को सही मंज़िल तक पहुंचता है! प्रस्तुत साखी श्री रवि साहब की है जिसमे उन्होंने अपने शब्दों में गुरु की महत्ता को बताया है गुरु के बिना रहना ठीक उसी प्रकार है जैसे पथर को खेत में बोने के बाद किसी प्रका के फसल की आशा करना क्योंकि खेत में यदि पथ्थर बोये है तो उसमे से कोई फल नहीं निकलने वाला है! गुरु करने पे गुरु हमारे अंदर उस बीज को, उसकी साधना को, उसके योग के फलित बिज को दाल देता है! जिसके कारण हमारे अंदर भी उन फलों का निर्माण होता है! इसको सही ढंग से देखा जाए तो कुछ ऐसा है की गुरु हमारे हमारे जैसे पथ्थर को भी सही बीज में रूपांतरित कर देता है! इसीलिए गुरु के बिना कुछ भी संभव नहीं है! अतएव गुरु करना बहुत जरुरी है!
४) गुरु गूंगा, गुरु बावरा, गुरु देवन का देव, हुए जो चले में शक्ति तो करे गुरु की सेव!
यहाँ पे प्रस्तुत पंक्ति में चले की परीक्षा ऐसा कुछ ही समझ लो इन्हे मैंने मेरे शब्दों में ही समझाने की कोशिश की है इसीलिए अगर किसीको कोई बात गलत लगे तो कृपया करके मुझे मैसेज कमेंट करे ताकि मैं उसमे सुधर ला सकु... हाँ तो! बात ऐसी है की गुरु किसी विषय में कुछ जल्दी बोलता नहीं है, वह अपने आप में एक मदमस्त हाथी जैसा ही होता है एक नशे में झूमता हुआ व्यक्ति आप ने देखा होगा वह अपनी मस्ती में होता है जब तक उसके आगे आप न जाओ या उसे ना टोको तब तक वह अपने आप में ही होगा उसको टोकने के बाद में भी टोकने वाले की क्षमता (capacity) पे डिपेंड करता है की वह व्यक्ति टोकने वाले को जवाब देगा या अपनी मस्ती में रहेगा;, शामे सिचुएशन गुरु की भी होती है "देवन के देव" या कह सकते है की देवो के देव जो की हम सभी जानते है "महादेव" है और इस बारे में किसीको बताने की आवश्यकता तो नहीं है की देवो के देव महादेव कैसे है मदमस्त अपनी दुनिया में मशगूल समाधी में रमते हुए चौदह लोक की खबर रखते हुए, भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञाता इतना होते हुए भी निर्भीक, बेफिक्रे बन के अपनी अवस्था में ही रहते है और तब तक उस अवस्था को विश्राम नहीं देते जब तक कोई पात्र उनके सामने ना आये...
ठीक उसी तरह गुरु देव भी अपने आप में ही होते है और जब तक कोई सुपात्र चेला उनके समक्ष अपने आप को नहीं रखता है, नहीं साबित करता है तब तक उनके भी ज्ञान का पिटारा नहीं खुलता है और जब चला अपनी शक्ति(सामर्थ्य) से गुरु को रिझाने में कामयाब हो जाता है तो उस चले को सही ज्ञान, मार्गदर्शन, गुरु से प्राप्त होता है!
गुरु की महिमा का वर्णन कर पाना सही में बहुत मुश्किल है फिर भी मुझसे जितना हो पा रहा है! मैं अपनी तरफ से उसको यहाँ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ और इस विषय में हम आगे भी अपने आप को रखते रहेंगे! क्योंकि गुरु आकाश के सामान है अंत नहीं अनन्त है!
गुरु
गुरु तारो पार न पायो पृथ्वी ना मालिक तमे तारो तो अमे तरिये
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरु देवो महेश्वरा
गुरु साक्षात् परब्रह्मा! तस्मे श्री गुरुवे नमः!
गुरु बिन कछु उपजे नहीं! भगति वगति को मूल!
रवि कहे पत्थर बोया खेत में! तो आवे नहीं फगुनी फूल!
गुरु गूंगा, गुरु बावरा, गुरु देवन का देव, हुए जो चले में शक्ति तो करे गुरु की सेव!
गुरु मिला तो सब कुछ मिला और न मिलिया कोय!
क्योंकि सूद दारा और लक्ष्मी! ये तो पापी जन के घर में भी होये!
सब धरती कागद करू, लेखनी सब वनराय
पुरे समुद्र की स्याही करू, तोय गुरु गुण लिखा न जाए!
और न जाने क्या क्या कह गए संत लोग और यकीन मानिये इसमें एक भी बाते झूठी नहीं है! हम जितना चाहे उतना लिखते ही जाए मगर गुरु की महिमा आंक नहीं सकते है उसको सिर्फ एहसास में ला सकते है! उसकी अनुभूति कर सकते है! या किसी और के अनुभूति किसी और के अनुभव को सुन भर ही सकते है! माप नहीं सकते है! गुरु के होने की, गुरु के महात्म्य की! कोई ऐसा व्यक्ति इस दुनिया में नहीं होगा जो गुरु के महात्म्य को पूरा पूरा बखान कर दे! कोई ऐसा नहीं कह सकता है की मैं जो कह रहा हूँ गुरु बस उतना ही है! उसके बाहर नहीं! आप के दिमाग की कैपेसिटी! आप की सोच जितनी है! उतना ही आप बोल सकते है! लिख सकते है! मगर गुरु तो उसके पार है! जितना निकलोगे उतना कम ही लगेगा! गुरु आकाश के समान है! अनन्त अपार!
मुझसे जितना हो सकता है संतो के शब्दों उनकी वाणी का सहारा लेके मैं अपने तरफ से आप को अपने सहज शब्दों में साझा करने की कोशिश कर रहा हूँ पूरा तो नहीं कह सकता हूँ इसको पर मेरी नज़र में जो कुछ है उसमे से कुछ अंश यहाँ रखने की कोशिश कर रहा हूँ!
गुरु! देहधारी गुरु की बात हम यहाँ कर रहे है! गुरु वह परम तत्व है जो सभी तत्वों से परिपूर्ण ही नहीं अपितु उनके भी कई ज्यादा ऊपर है! गुरु कर्मो के ऊपर है! गुरु पांच पच्चीस के पर है! इन सभी के ऊपर उसकी विजय है! बस इतना सा लिखना ही गुरु को हमारी दृष्टि में कहा से कहा ले गया जिसे हम अभी नज़रो में अपने सामने देख रहे थे अब उसके साथ नज़र मिला पाना भी मुश्किल लग रहा है! ये बाते कोई भी गुरुमुखी व्यक्ति सहज ही समझ जाएगा! क्योंकि उसके पास गुरु की अनुभूति है! गुरु के शब्द उसके पास पड़े है! उसकी झोली में गुरु की कृपा भरी पड़ी है! वह झोली खाली नहीं!
गुरु हमारे अनन्त विचारों का एक जवाब है! उसके एक एक शब्द एक एक दृष्टि या कहे की दृष्टान्त हमारे अंदर कितने ही विचारों को जन्मा देती है और उनका समाधान भी करती है! कई प्रकार के बंधनो से गुरु का एक शब्द हमें मुक्ति दे देता है! मुक्त कर देता है! कोई सीमा ही नहीं! गुरु के गुणों की!
गुरु के लिए एक साधारण सा उदाहरण है! मेरे गुरु "परम पूज्य श्री दीपक बापू" उनकी वाणी के चलते हम उन्हें प्रेम पूर्वक दीपदान भी कहते है! एक बार जब ये सभी बाते मेरे इर्द गिर्द घूम रही थी मैं इनमे उतरता जा रहा था! परम तत्व, पांच पच्चीस, जंगल, शुन्य शिखर, गगन गढ़ क्या है? क्या है परम तत्व? क्या हम इसे देख सकते है? ध्यान क्या है! ये योग है! तो क्या योग में इतनी शक्ति है? क्या ये हमें हमारे मार्ग पे ले जा सकता है? ऐसे ही कई सारे सवाल मेरे दिमाग में चल रहे थे! वाणियों में अजीब अजीब तरह के शब्द, नाद बूँद, गजर, ये सभी मेरे प्रश्नों का हिस्सा बनते जा रहे थे! कुछ तो ऐसे बचकाने प्रश्न होते थे की बोल भी नहीं सकता हूँ! और अपने गुरु श्री दीपक बापू के सामने मैंने तो सवालों की बारिश ही जैसे कर दी हो! इतने सारे सवालो का सिर्फ एक शब्द में जवाब! जो सवाल थे उनको दो भागो में बाँट दिया एक ध्यान से सम्बंधित था! दूसरे बड़े कॉमन क्वेश्चन थे की जिनके लिए उनका होना या नहीं होना! तो उन्होंने इस दूसरे सवाल के लिए सिर्फ इतना ही कहा की कॉमन बातो में कभी क्वेश्चन नहीं होना चाहिए! बात इतनी सी थी मगर मेरे समझ में वह आगयी क्योंकि गुरु जानता है! किसे कैसे समझाना है! अब इस बात का और एक उदाहरण देता हूँ! "केरम" इस खेल से लोग भली भाँती परिचित है! अब खेलने के समय यदि खिलाडी कहे की इसमें काली सफ़ेद गोटिया ही क्यों है! नीली पिली क्यों नहीं कोई और रंग क्यों नहीं? ९ ९ ही क्यों है! ८ या १० क्यों नहीं! लाल गोटी क्यों है! उसकी क्या जरुरत थी! ४ खाने क्यों बने हुए है ज्यादा क्यों नहीं कम क्यों नहीं! किसने इस खेल का निर्माण किया है! किस कमेटी ने इन सभी बातो का निर्णय लिया और उस कमेटी को किसने पारित किया! उसे सही किसने किसने ठहराया पहले ये सभी बातो का खुलासा करो तभी मैं खेलूंगा! तो दोस्तों सीधा सीधा उसको खेल के बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा! क्योंकि खेल का नियम है! जो चला आ रहा है! और ये कॉमन है! कुछ फेरफार होते है! नियम में! मगर सिद्धांत सिद्धांत ही रहने वाला है! और ये सभी बाते कॉमन में आती है! इनके प्रति आप का सवाल बचकाना तो है ही प्लस दूसरों के मजे को भी ख़राब करता है!
दूसरे शब्दों में ऐसा भी देख सकते है! की कोई गाडी हमें चलानी सीखनी है! तो उसे चलाना ही सीखना चाहिए! ना की उसका इन्वेंशन किसने किया! गियर ब्रेक हैंडल कहा से निकला किसने बनाया! ये सब क्यों है वह क्यों नहीं ये सभी में अगर हम फंसे रहेंगे तो कुछ नहीं कर पाएंगे! और इन बातो की कोई अहमियत उस समय होती भी नहीं है! बाइक चलाने सिखने के लिए बाइक की जरुरत है! जो आप के सामने है! और आप को सीखना है! उसमे क्या वस्तु कहाँ लगी है! और कैसे उसे कंट्रोल करना है! एक बार इतना कर लीजिए बाद में आप को स्वयं किसी और बात की जानकारी का इंटरेस्ट ही नहीं रहेगा! और ये बाते वैसे भी लाखो में कोई एक शायद ही जानता हो! आपको बाइक सीखनी है! तो जो चला रहा है वह आप को बता सकता है! आप उसको ये सभी सवाल करेंगे तो आप जहां थे वही रह जायेंगे! ठीक उसी प्रकार गुरु है! ध्यान की अवस्था! ध्यान कैसे करना वह सब कुछ वह बताता है! वाणी के मरहम को वह समझाता है! वह आपको सही दिशा दिखता है! मगर इस दिशा में इस रस्ते में आप को चलना स्वयं है! वह अपने आपको आप के लिए हमेशा तैयार रखेगा और हर कदम पे आप के साथ ही होगा आप के अंदर ही बैठा रहेगा! जरूरत है आप को अपने विश्वास को बनाए रखने की और सही तरीके से उसकी बातो को मानने की!
ध्यान अवस्था में निहित गुरु जो ध्यान का सही मतलब और उसको सही तरीके से करना जानता है! वो आप को रास्ता बता सकता है चलने के पहले ही उस ध्यान की क्रिया में कितना टाइम लगेगा ध्यान करने पे नहीं मिला तो क्या करने का? ध्यान में जो प्रकाश दीखता है वह मनगढंत तो नहीं है ये सब कहीं हमारे दिमाग का बनाया हुआ खेल तो नहीं है साइंटिफिक रेअसोंस है इनके पीछे ये सब धोखा है स्वप्न है ये सब सवाल फालतू है कोई अर्थ नहीं है इनका ध्यान लगाओ महसूस करो आपको खुद अनुभूति होगी सच और झूठ का पर्दा उठेगा मगर ज्यादातर लोग इन बातो को हज़म नहीं कर पाते है क्यों की उनके पास गुरु होता नहीं है अगर होता है तो पूरा नहीं होता है क्योकि पूरा गुरु शिष्य के हर बात का जवाब जानता है वह उन हर जगह से गुज़र चूका होता है जहां शिस्य आज चलना चाहता है एक लेवल तक गुरु हर उन सवालो का जवाब दे सकता ही है जहां तक शिष्य को जरुरत है उसके बाद आगे बढ़ना शिष्य का काम है!
ज्यादातर देखा गया है कई उदाहरण है देखने के लिए जहां शिष्य गुरु से आगे निकल गया मगर क्या इसका मतलब गुरु काम पड़ गया?? नहीं गुरु ने ही कृपा की है!, गुरु ने ही मार्गदर्शन दिया है जिसके कारन वह लोग आज उस मुकाम पर पहुंच पाए है! और यही कारन है की गुरु की महत्ता कभी कम नहीं होती है!..
१) गुरु तारो पार न पायो, पृथ्वी न मालिक तमे तारो तो अमे तरिये!
इन शब्दों को सब से पहले लिखा है मैंने यहाँ पे इसका मतलब देखने में और समझने में बहुत ही साधारण सा लगता है पर यहाँ बात अगर देखि जाए तो त्याग की है अब आप सोचेंगे की त्याग की बात क्या है! किस त्याग की बात हो रही है! एक बार फिर से देखिये "गुरु तारो पार न पायो, पृथ्वी ना मालिक तमे तारो तो अमे तरिये!" वाह क्या बात है!! बास इस एक लाइन की मधुरता, त्याग, समर्पण की भावना! इसको सार में आप को अपने शब्दों में समझाने की कोशिश करता हूँ की गुरु जिसे हमने मान है सिर्फ मान भर लेने से ये या बोल देने भर से हम पूर्ण नहीं होते है इस पंक्ति में पृथ्वी शब्द का प्रयोग हुआ है और संतो की भाषा में पृथ्वी का मतलब होता है शरीर! हमारी देह!, सभी जानते है की संतो में जो भी बाते कही है वह सभी की सभी अपने आप में बेजोड़ है और हमारे शारीर के अंदर ही मौजूद है!इस पंक्ति में भी उन्होंने पृथ्वी शब्द का प्रयोग हमारे शरीर को लेकर ही किया है की गुरु करो तो अपने आप को पूरी तरह से उसके हाथ में सौप दो! पूरी तरह से उसके प्रति सुपुर्द हो जाओ उसे ही अपना मालिक समझ लो! और सभी जानते है की मालिक की हर बात माननी ही पड़ती है तो ठीक वैसे ही उसकी हर बात को मानो, उसके हर एक वचन शब्द को आदेश मानो और पूरा करो! वह ही तुम्हे तारेगा, भव पार उतारेगा!, वह गुणों का भण्डार है, उसके गुणों की कोई संख्या नहीं है, उसमे उदारता की कोई सीमा नहीं है! त्याग में उसके जैसा कोई नहीं है! उसके पार पाना मुश्किल है! उसकी छत्र छाया में ही हमारा उद्धार होगा! हमें कभी किसी वस्तु की कमी महसूस नहीं होगी! छोटे में इतना समझ लीजिए की गुरु नाम की माला ही काफी है आप को ८४ से छुड़ाने के लिए!
2) गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः गुरुसाक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुसाक्षात परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥
यह एक संस्कृत में लिखा हुआ श्लोक है जो ज्यादातर तो बच्चे बच्चे के जुबान पर होता है! इस श्लोक में बताया गया है की गुरु की उपाधि कोई वर्णन नहीं है! गुरु ही साक्षात् परमेश्वर का स्वरुप है! इसको थोड़ा हम सार में जानने की कोशिश करते है!
इसको समझने के लिए पहले तो हम इसके सन्धिविच्छेद को समझ लेते है! यहाँ लिखा है! की
गुरु ब्रह्मा
गुरु विष्णु
गुरु महेश
गुरु साक्षात् परब्रह्मा
तस्मै श्री गुरुवे नमः!
ब्रह्मा विष्णु महेश
निर्माता, पालक, संहारक
ये तीनो ही परिपूर्ण देवता है इनके सामान गुरु को माना गया है! इसे थोड़ा और विस्तार से देखते है!
ब्रह्मा
ब्रह्मा का कार्य है निर्माण करना उन्होंने इस पृथ्वी(धरातल) का निर्माण किया है! और जैसा मैंने ऊपर पहले ही बताया है की संतो ने इस शारीर को भी पृथ्वी ही कहा है! अब ये तो साधारण सी समझने वाली बात है की गुरु ने हमें जन्म तो नहीं दिया है! परन्तु गुरु हमें बनाता है! समाज में हमें अच्छे इंसान के रूप में हमारा निर्माण करता है! हमारे अंदर जो भी बुराई है! उन सभी राग द्वेषो को कांट छांट कर अलग करता है! और हमें पुनः एक घड़े के तरह निर्मित करता है! घड़ा बनाने वाला घड़े को बाहर से अंदर से ठोक ठोक कर सही रूप सही आकार देता है! कई बार उस घड़े को ठोकने पीटने के बाद उसको समतल करने के बाद में तपाता है भट्टी में उसको आग के अंदर! तब जाकर घड़े में गर्मी नहीं बल्कि शीतलता आ जाती है! ये कमाल था उस घड़े बनाने वाले का उसने मिटटी से घड़ा बनाया है! मिटटी को उसने नहीं बनाया उसने मिटटी को रूप दिया और घड़े का निर्माण किया ठीक उसी प्रकार गुरु हमें हमारी बुराई के साथ स्वीकार कर के उन्हें दूर कर के हमारे अंदर शुद्ध मानव का निर्माण करता है इसीलिए उसे ब्रह्मा की उपाधि दी जाती है!
विष्णु
विष्णु का कार्य है पालन करना! सही रूप से कर्मो को देखते हुए फल को देना! गुरु भी कुछ वैसा ही है! गुरु अपने शिष्य को बुराई से बचाता है! उसे सत्कर्म सत्मार्ग दिखता है! उसपे उसको चलने की प्रेरणा देता है! और न सिर्फ प्रेरणा देता है बल्कि उसका हाथ पकड़ के भी कई बार चलता भी है! पालक की तरह उसमे संस्कार का पुनर्निर्माण करता है! और शिष्य के सही दिशा में आगे बढ़ने पे उसको अपनी योग साधना का फल, अपने ज्ञान का फल वह शिष्य को देता है! इसीलिए गुरु को विष्णु भी कहा जाता है!
महेश
त्रिमूर्ति में इस मुरी का कार्य है संहार करना! गुरु भी हमारे भीतर बैठे राक्षस का संहार करता है! हमारी बुराई को मारता है! हमारे भीतर बैठे भय को खत्म कर देता है! हमे मुक्ति का मार्ग दिखता है! और हमारी आशाओ को जो की कभी खत्म नहीं होती है! उनका नष्ट कर देता है! और इसी संहार के स्वरूप के कारन गुरु को महेश भी कहा जाता है!
गुरु साक्षात् परब्रह्मा!
ब्रह्म और परब्रह्म की व्याख्या मैंने पहले भी अपने लेख में की है जिसे आप हमारे ब्लॉग पे देख सकते है! गुरु को परब्रह्म की उपाधि देने का अर्थ यहाँ कुछ इस तरह से आप देख सकते है! की गुरु ही वह व्यक्ति है जो हमें साक्षात् ब्रह्म के दर्शन उनकी उपस्थिति की अनुभूति हमें करवाता है! गुरु हमारे अंदर से मैं और मेरा निकाल कर समदृष्टि सद्भावना का निर्माण करता है! हमारे अंदर जो ब्रह्म का तत्व खेल कर रहा है! उसका सही स्वरुप दिखा कर के ब्रह्म से भी पर परब्रह्म जहां हम सभी को अंत में मिल जाना ही लक्ष्य है उसका मेल करा देता है! गुरु हमारे अंदर उस परब्रह्म की छवि का आभास करा देता है! अब जो आप को उसकी छवि का आभास करा दे रहा है! आप उसे स्वयं क्या समझेंगे!???
३) गुरु बिन कछु उपजे नहीं! भगति वगति को मूल!
रवि कहे पत्थर बोया खेत में! तो आवे नहीं फगुनी फूल!
गुरु बिन कछु उपजे नहीं! भगति वगति को मूल, रवि कहे पत्थर बोया खेत में! तो आवे नहीं फगुनी फूल! इस पंक्ति में गुरु की महत्ता को दर्शाया गया है की व्यक्ति के जीवन में गुरु का कितना महत्त्व होता है! गुरु के बिना ना ही भक्ति पूरी हो पाती है न ही मुक्ति हो पाती है क्योकि गुरु ही मार्गदर्शन करता है इन सभी बातो में, उसके द्वारा दिखाया गया रास्ता ही अपने को सही मंज़िल तक पहुंचता है! प्रस्तुत साखी श्री रवि साहब की है जिसमे उन्होंने अपने शब्दों में गुरु की महत्ता को बताया है गुरु के बिना रहना ठीक उसी प्रकार है जैसे पथर को खेत में बोने के बाद किसी प्रका के फसल की आशा करना क्योंकि खेत में यदि पथ्थर बोये है तो उसमे से कोई फल नहीं निकलने वाला है! गुरु करने पे गुरु हमारे अंदर उस बीज को, उसकी साधना को, उसके योग के फलित बिज को दाल देता है! जिसके कारण हमारे अंदर भी उन फलों का निर्माण होता है! इसको सही ढंग से देखा जाए तो कुछ ऐसा है की गुरु हमारे हमारे जैसे पथ्थर को भी सही बीज में रूपांतरित कर देता है! इसीलिए गुरु के बिना कुछ भी संभव नहीं है! अतएव गुरु करना बहुत जरुरी है!
४) गुरु गूंगा, गुरु बावरा, गुरु देवन का देव, हुए जो चले में शक्ति तो करे गुरु की सेव!
यहाँ पे प्रस्तुत पंक्ति में चले की परीक्षा ऐसा कुछ ही समझ लो इन्हे मैंने मेरे शब्दों में ही समझाने की कोशिश की है इसीलिए अगर किसीको कोई बात गलत लगे तो कृपया करके मुझे मैसेज कमेंट करे ताकि मैं उसमे सुधर ला सकु... हाँ तो! बात ऐसी है की गुरु किसी विषय में कुछ जल्दी बोलता नहीं है, वह अपने आप में एक मदमस्त हाथी जैसा ही होता है एक नशे में झूमता हुआ व्यक्ति आप ने देखा होगा वह अपनी मस्ती में होता है जब तक उसके आगे आप न जाओ या उसे ना टोको तब तक वह अपने आप में ही होगा उसको टोकने के बाद में भी टोकने वाले की क्षमता (capacity) पे डिपेंड करता है की वह व्यक्ति टोकने वाले को जवाब देगा या अपनी मस्ती में रहेगा;, शामे सिचुएशन गुरु की भी होती है "देवन के देव" या कह सकते है की देवो के देव जो की हम सभी जानते है "महादेव" है और इस बारे में किसीको बताने की आवश्यकता तो नहीं है की देवो के देव महादेव कैसे है मदमस्त अपनी दुनिया में मशगूल समाधी में रमते हुए चौदह लोक की खबर रखते हुए, भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञाता इतना होते हुए भी निर्भीक, बेफिक्रे बन के अपनी अवस्था में ही रहते है और तब तक उस अवस्था को विश्राम नहीं देते जब तक कोई पात्र उनके सामने ना आये...
ठीक उसी तरह गुरु देव भी अपने आप में ही होते है और जब तक कोई सुपात्र चेला उनके समक्ष अपने आप को नहीं रखता है, नहीं साबित करता है तब तक उनके भी ज्ञान का पिटारा नहीं खुलता है और जब चला अपनी शक्ति(सामर्थ्य) से गुरु को रिझाने में कामयाब हो जाता है तो उस चले को सही ज्ञान, मार्गदर्शन, गुरु से प्राप्त होता है!
गुरु की महिमा का वर्णन कर पाना सही में बहुत मुश्किल है फिर भी मुझसे जितना हो पा रहा है! मैं अपनी तरफ से उसको यहाँ लिखने की कोशिश कर रहा हूँ और इस विषय में हम आगे भी अपने आप को रखते रहेंगे! क्योंकि गुरु आकाश के सामान है अंत नहीं अनन्त है!
जिसे कुछ भी समझने में या गैरसमझ हुई हो तो वह हमसे संपर्क कर सकता है!
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