"नाम" नागेश जय गुरुदेव (दीपक बापू)

गुरुवार, 31 मार्च 2016

प्रचण्ड ऊर्जा के दो प्रवाह कुण्डलिनी में🍃🍃🍃🍃 (Suajanya Whatsapp Santvani Group)

प्रचण्ड ऊर्जा के दो प्रवाह कुण्डलिनी में🍃🍃🍃🍃
शरीरगत ऊर्जा का केन्द्र मूलाधार माना गया है और
चेतना ऊर्जा का उद्गम केन्द्र सहस्रार। मूलाधार चक्र
जननेन्द्रिय मूल में है और सहस्रार चक्र मस्तिष्क के मध्य
केन्द्र में। इन दोनों की तुलना दक्षिण और उत्तर
ध्रुवों से की जाती है। जिस प्रकार
धरती का समस्त वैभव अंतर्ग्रही
अनुदानों से परिपूर्ण है और वह ध्रुव केन्द्रों के माध्यम से
उपलब्ध होता है। ठीक उसी प्रकार
सहस्रार के माध्यम से ब्रह्माण्डीय शक्तियाँ
उपलब्ध की जाती है, और उपयोग
में बची खुची जो अनावश्यक
लगती हैं, वे मूलाधार से निकल जाती
है। सहस्रार को उत्पादन अर्जन का माध्यम और मूलाधार को
विसर्जन निष्कासन का द्वार कहा गया है। आध्यात्मिक कमाई
ब्रह्मरन्ध्र के केन्द्र से होती है और उसका
खर्च यदि महत्वपूर्ण प्रयोजन में नहीं बन पड़ा
तो मूलाधार के समीप वाला छिद्र उसे काम कौतुक के
सहारे विसर्जित करता बहाता रहता है। सहस्रार के माध्यम से
समाधि का आनन्द और मूलाधार के माध्यम से
कुण्डलिनी का लाभ उठाया जा सकता है।
दिव्य उपार्जनों को प्रखर बनाने और श्रेष्ठ उपयोग में लगाने
की विद्या का नाम कुण्डलिनी जागरण
है। कुण्डलिनी उस प्राण विद्युत का नाम है, जिसमें
शरीरगत ऊर्जा का अंश कम है और प्राण चेतना
का भाग अनुपात अधिक होता है। यदि उसका महत्व समझा और
उपयोग जाना जा सके तो मनुष्य प्रचलित सम्पदा उपार्जनों
की तुलना में अधिक उच्चस्तरीय
लाभ कमाने में सफल हो सकता है।
कुण्डलिनी का शब्दार्थ है - घेरा बना कर बैठना।
कुण्डलिनी मारकर सर्प बैठता है। इसलिए
उसी की उपमा प्रायः काम में
लायी जाती है। पृथ्वी
शेषनाग के फन पर रखी हुई है। आकाश तत्व का
देवता ‘अनन्त’ महासर्प है। इस पौराणिक मान्यता में विश्व-
ब्रह्माण्ड की तथा पृथ्वी
की स्थिति का निरूपण है। पाताल को शेष लोक कहते
हैं। ऊपर के ब्रह्मलोक पर भी शेष सर्प का
ही आधिपत्य है। विष्णु भगवान शेष सर्प पर
सोये हुए हैं। शिव लोक में भी सर्प साम्राज्य है,
वे भगवान शंकर के अंग- अंग से लिपटे हुए है। इस प्रकार
अधःलोक और ऊर्ध्वलोक में पृथ्वी के ऊपर और
नीचे सर्पसत्ता का ही आधिपत्य
है। इस विवेचना से कुण्डलिनी शक्ति के स्वरूप
की आरम्भिक जानकारी
मिलती है।
शक्ति का ही विकसित रूप पदार्थ है।
शरीर के अवयव या रासायनिक पदार्थों से बने हैं,
पर मूलतः वे शक्ति रूप हैं। शक्ति ही सघन होकर
रासायनिक तथा दूसरे पदार्थों का रूप धारण करती है
और इन्हीं के संयोग से शरीर बन
जाते हैं। संक्षेप में शरीर रचना का मूलतत्व-मूल
आधार एक विद्युत शक्ति के रूप में ही उद्भूत
होता है। रतिक्रिया के घर्षण से यही विद्युत
उत्पन्न होती है। उसी से शुक्राणु
एवं डिम्ब कीट मिल कर गर्भधारण का सुयोग बनाते
हैं। शरीरगत सभी हलचलों,
क्षमताओं और विशेषताओं का श्रेय जिन गुण सूत्रों को दिया जाता
है-वह वस्तुतः एक सचेतन विद्युत की
ही प्रतिक्रियाएं हैं। यह प्राण विद्युत
किसी शरीर का उत्पादन करने से
लेकर उसका आजीवन बना रहने वाला ढाँचा खड़ा
करती है इस ढांचे में शरीर और मन
दोनों की ही संरचना सम्मिलित है।
संक्षेप में प्राणधारियों के काय कलेवर का अस्तित्व, स्वरूप एवं
भविष्य निर्धारण करने वाली प्राण विद्युत का नाम
कुण्डलिनी है।
कुण्डलिनी का दूसरा सिरा मस्तिष्क मध्य
ब्रह्मरंध्र में है। यह चेतना मूलक है। चेतना यों समस्त
शरीर में संव्याप्त है, पर उसका संचार केन्द्र
मस्तिष्क ही है। प्राण विद्युत का ज्ञानपरक सिरा
मस्तिष्क में और शक्ति परक सिरा मूलाधार में है। दोनों प्रायः
पृथक ही रहते हैं। दोनों सिरे अपने-अपने
सीमित प्रयोजनों को ही पूरा कर पाते
हैं। पृथक-पृथक उनकी शक्ति इतनी
ही है कि अपने स्थानीय
उत्तरदायित्व को वहन कर सके। बिजली के दो तार
अलग-अलग रहें तो उनसे कोई विशेष प्रयोजन पूरा
नहीं होता, पर जब वे मिल जाते, है तो उस संयोग
से प्रचण्ड प्रवाह उत्पन्न होता है। कुण्डलिनी
जागरण की साधना में प्राण-विद्युत के दोनों सिरों को
मिला दिया जाता है। इस मिलन का चमत्कार वैसा ही
होता है, जिस प्रकार नर-नारी के मिलन से एक नये
उत्साह का, नये उत्तरदायित्व का और नये परिवार का आरम्भ
होता है। कुण्डलिनी जागरण में मूर्छना
की समाप्ति और चेतना की अभिवृद्धि
ही नहीं, दो शक्ति ध्रुवों
की मिलन प्रक्रिया भी सम्मिलित है।
मूलाधार वाला सिरा प्रजनन के लिए उत्साह एवं सामर्थ्य जुटाने में
लगा रहता है और उसी प्रवाह की
पूर्ति कर पाता है। सहस्रार की सामर्थ्य
भी उपार्जन, उपयोग एवं व्यवहार व्यवस्था में
नियोजित हो जाती है।
मूलाधार चक्र को प्राण ऊर्जा जीवनी
शक्ति, सृजन प्रेरणा, जिजीविषा, उमंग आदि में
स्त्रोत के रूप में समझा जा सकता है। उसका अनवरत प्रयास
काया के समस्त भौतिक प्रयोजनों में आवश्यक समर्थता एवं
प्रेरणा उत्पन्न करने में लगा रहता है। इन्हीं में
से एक प्रेरणा उत्पन्न करने में लगा रहता है।
इन्हीं में से एक उत्साह काम-क्रीड़ा
है। “काम” शब्द का वास्तविक अर्थ क्रीड़ा-विनोद
एवं खिलाड़ी जैसे आनन्द की अनुभूति
है इस प्रयोजन में प्रायः काम कौतुक ही हलचल
को प्रधानता मिल जाती है। इसलिए रति प्रयोजनों के
अर्थ में ही इन दिनों ‘काम’ शब्द का उपयोग होने
लगा है। मूल अर्थ इसमें कहीं अधिक व्यापक है,
उसे कर्मठता और प्रगतिशीलता का उमंग भरा
सम्मिलन कह सकते हैं। यदि ऐसा न हो तो जीवन
के चार पुण्य फलों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में काम शब्द का
प्रयोग न हुआ होता। भला योगी,
तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी,
तत्वज्ञानी क्यों ‘काम’ जैसी
अश्लील और शक्ति क्षरण करने
वाली प्रक्रिया को जीवन फलों में
सम्मिलित करते।
कुण्डलिनी का दूसरा ऊपरी सिरा
मस्तिष्क मध्य सहस्रार में है। यह जीव चेतना
का ज्ञान धारणा का केन्द्र है। यह जितना विकसित होता चला जाता
है, समझदारी बढ़ती
जाती है। उसी अनुपात में मनुष्य
अधिक आजीविका एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करता है।
इस केन्द्र की रहस्यमयी परतें
कुण्डलिनी जागरण के अभ्यास से
उभारी और सशक्त बनायी जा
सकती हैं। इस उपार्जन को दिव्य ज्ञान या दिव्य
दृष्टि कहते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान के
कौतूहलपूर्ण चमत्कारों की चर्चा प्रायः
होती रहती है। विशिष्ट बुद्धिमानों
की उद्भूत मस्तिष्कीय प्रतिभा का
विवरण सुनने को मिलता रहता है। उसके पीछे
किसी रहस्यमय चेतना परत का प्रस्फुरण
ही काम करता है। दूरदर्शी सूझबूझ
के सहारे लोग ऐसी योजनाएँ बनाते हैं, जिनके सफल
होने में कदाचित ही व्यवधान पड़ते हैं। इसे
भी मानसिक विशिष्टता ही कह सकते
हैं, जो सर्व साधारण में नहीं होती
है। ऐसी उपलब्धियों में भी
उन्हीं गहरी पर्तों का उभार काम
करता है, जिन्हें सामान्य प्रयत्नों से नहीं वरन्
कुण्डलिनी जागरण जैसे आध्यात्मिक प्रयत्नों से
ही पूरा किया जाता है। तत्वदर्शी,
महामनीषी
ब्रह्मज्ञानी आत्माएँ अपनी दिव्य
क्षमताओं को उच्चस्तरीय प्रयोजनों में प्रयुक्त
करने की उपयोगिता समझते हैं। फलतः वे महात्मा,
देवात्मा, ब्रह्मात्मा जैसी भूमिकाएँ सामान्य
शरीर धारण किए रहने पर भी
निबाहते रहते हैं। उसमें हेर-फेर करने की क्षमता
भी उसमें पाई जाती है, इसलिए उन्हें
सिद्ध पुरुष भी कहा जाता है। यह
मानवी सत्ता के उत्तरी ध्रुव का
प्रखरीकरण हुआ। इसे महासर्प का जागरण
भी कह सकते हैं।
दक्षिणी ध्रुव का-मूलाधार का -जागरण वह है,
जिसमें कामुकता को उदात्त परिष्कृत बनाया जाता है। मनुष्य
पराक्रमी पुरुषार्थ, मनस्वी,
तेजस्वी, ओजस्वी बनता है और
महामानवों जैसी भूमिका निभाता है।
उसकी काम-क्रीड़ा हँसते-हँसाते
स्वभाव में मिलते-मिलाते व्यवहार में सुविस्तृत होती
देखी जा सकती है, ऐसे व्यक्ति
कुरूप होते हुए भी सुन्दर, जराजीर्ण
रहते हुए भी सुन्दर लगते हैं। इसे
महासर्पिणी का चमत्कार ही समझा
जाना चाहिए।

वारी ओ वारी म्हारा अनगढ़ देवा इन घट निँद्रा त्यागी

 🌷ॐ शिव गोरख अलख आदेश आदेश 🌷

वारी ओ वारी म्हारा अनगढ़ देवा इन घट निँद्रा त्यागी !
स्वर्गलोक से चली भवानी गोरख छलबा आई !
आवो मेरी माता आवो मेरी जननी इन घट निद्रा त्यागी ! 
कौण तुम्हारा  बणा घाघरा कौण तुम्हारा चीर जी !
कौण तुम्हारा बणा  कांचणा  कौण तुम्हारा वीर जी !
धरणी हमारा बणा  घाघरा गगन  हमारा चीर जी! 
ससिया भाण  म्हारा बणा कांचणा  सन्त हमारे वीर जी !
कौण तुम्हारे  बहन भाणजी   कौण  तुम्हारी माता !
कौण   तुम्हारे संग  रमता  कौण   करे  दो बांता !
पवन हमारे  बहन भाणजी  धरण  हमारी माता !
धूणा  हमारे   संग  रमता  रेण करै  दो  बांता !
कौण दिया थाने डंड कमण्डल कौण  दिया  जलझारी!
कौण दिया थाने भगवा वस्त्र कैसे हुआ  ब्रह्मचारी !
शिव जी  दिया म्हाने  डंड कमंडल  ब्रह्मा दिया   जलझारी !
गोरां  दिया म्हाने भगवा  वस्त्र ऐसे  हुआ   ब्रह्मचारी !
थाने बांध थांका गुरां ने  बांधू बांधू कंचन  काया !
सेली  सिंगी  मुन्द्रा  बांधू जोग कठा से  लाया !
निज को खोलूं गुरां जी  को खोलूं  खोलूं कँचन काया !
सेली सींगी मुन्द्रा खोलूं  जोग अलख से लाया !
उठत  मारूं  बैठत  मारूं  मारूं  सोवत जागा !
तीन लोक में भग  पसारूं कहां जाए अवधूता !
उठत सिवरूं बैठत सिवरूं सिवरूं सोवत जागा !
तीन   लोक के बाहर खेलूं मे  गोरख  अवधूता !
मछन्दरनाथ जोगी रा पूता गोरख जागे जग सूता !
शरण मछन्दर जति गोरख बोल्या माई हारी  बाबा जीता !

बुधवार, 30 मार्च 2016

GURU

Abb iske aage hum Guru ke vakhaan ko apne shabdo me utarne ki koshish karenge


GURU
Guru taaro paar na paayo prithvi na maalik tame taaro to ame tariye….


Guru Brahma Guru Vishnu Guru Devo Maheshwaraaa…..


Guru Bin kachu upaje nahi bhakti vakti ko mool Ravi kahe jo patthar boya khet me to aave nahi phaguni phool….


Guru Gunga Guru Baawra Guru Devan Ka Dev Hoye Jo Chele Me Shakti To kare Guru ki Sev….


Guru Mila to sab mila aur na milya koye
Kyoki Sud Dara aur Lakshmi Ye To Paapi Jan ke Bhi Ghar me Hoye…


Saat Samundar Shaahi Karu Lekhani Sab Vanraay
Sab Dharti Kagad karu Toy Guru Gun Likhaa Na Jaaye…


Aur na jaane kya kya kah gaye Sant log aur yakeen maaniye isme ek bhi baate jhuthi nahi hai hum jitna chahe utna likhte hi jaaye magar guru ki mahima aank nahi sakte hai sirf ehsaas anubhuti hi hai Guru ke hone ki Guru ke mahatmya ki koi aisa vyakti iss duniya me kya uss duniya me bhi nahi hai jo guru ke Mahatmya ka vakhaan kar sakte ho sirf aur sirf kuch shabdo me vaani me uske Guno ka kuch ansh hi aa pata hai Chand shabdo me kaha jaye to itna hi likh sakte hai ki Guru taaro paar na paayo yaa Guru hi sab kuch hai yaa kahe Guru hi bhagwan swarup hai magar Guru ki bakhaan kar pana sahi me bahut hi mushkil hai is mushkil ko mei mere shabdo me sajhaaa kar raha hoo ek nazar me


Guru dehdhari ki hum baat kar rahe hai Guru Woh tattva hai jo sabhi tattvo se paripurna hi nahi apitu unke upar hai Guru karmo ke upar hai Guru paanch tattvo pachhis prakriti ke pare hai 3 guno ke upar vijay prapt kar chuka hai itni si baate hi guru ko kaha se kaha pahucha chuki hai ye koi bhi gurumukhi vyakti samajh hi sakta hai
Guru hamare anant vicharo ka ek jawab hai uske ek ek shabd ek ek drishti ya drishyaant hamare andar kitne hi vichaaro ko janma de deti hai kitne vichaaro ke jawab de deti hai kayi prakar ke bandhano se mukta kar deti hai jiski koi seema nahi hai jiski koi target nahi hai


Guru ke liye ek simple sa udaharan hai jinhe mein mera Guru Manta hoo “Shree Deepak Baapu” unki vaani ke chalte hum unhe prem purvak “Deepudaan” bhi kehte hai
Ek baar jab ye sabhi baate mere irda girda ghumne lagi ki koi param tatva haijise hum dekh sakte hai yog kriya me possibility hai naad boond ye sab baate jaise jaise vaaniyo me khulne lagi mere vichaaro ne prashno ko janma dena shuru kiya aur naa jaane kaise kaise prashna uthate the ki bachkane jaise aap logo ko bata bhi nahi sakta hoo unke upar to jaise sawaalo ki barish hi kar di ho maine magar sabhi prashno ko unhone suna aur samjha aur itne saare sawalo ka 2 baat me jawab de diya ki jo bhi sawal tum kar rahe  ho uska simple saa jawab hai ki ye sabhi chize hai dhyaan lagao milenge aur dusre shabda the ki Life me kabhi bhi Common Baato ke liye Prashna Karne hi nahi chahiye For Eg. Carrom khelna hai to usme ye question ki 9 kaali 9 safed kyo hai ek queen kyo hai 4 khaane kyo hai ye kisne decide kiya kisne kehne pe ye game bana kisne 4 holes ko manyata di iska agreement kaha huaa jis team ne isse manyata di unhe manyata kaha se mili ye sab faltu question hai inka koi jawab ho ya naa ho alag baat hai magar ye sabhi sawal ka game khelne se koi matla nahi nikalta hai jaise ki dusre shabdo me kahoo to Bike chalana agar sikhna chahte ho to chalana sikho uske liye naa nahi hai magar uske tyre ka invention kisne kiya puri bike ka invention kisne kiya gear kisne banaya break kisne banaya ye sab janane ki jarurat bike chalane ke liye hai hi nahi bike chalane ke liye road ke niyam aur  bike ke andar lage huye yantro ko control karna sikhna hota hai agar unke inventor ke bare me aap ko bata diya jaaye to bhi sirf batane bhar se aap bike chalana nahi sikh sakte hai uske liye aap ko bike pe baith ke uske gear break cluch ko mehsoos karna hoga aur practically use chala ke dekhna hoga aur yaha jo sawal honge ki cluch kab chhodi jaye kaun sa gear rakhaa jaye woh jawabdehi ho sakte hai par uske pehle yadi aap inventor ke baare me poochhenge to shayad hi 10000 me se koi ek jawab janta hoga woh bhi poore nahi to iska matlab ye nahi ki use bike chalane nahi aati yaa bike ke bare me woh janta hi nahi hai thik usi prakar bhagwan ke darshan dhyaan awastha me karnewala aap ko rasta bata sakta hai chalne ke pehle hi use dhyaan ki kriya me kitna time lagega dhyan karne pe nahi mila to kya karne ka dhyaan me jo prakash dikhta hai woh mangadhant to nahi hai ye sab kahin hamare dimag ka banaya huaa khel to nahi hai scientific reasons hai inke pichhe ye sab dhokha hai swapna hai ye sab quesiton faltu hai koi artha nahi hai inkaa dhyaan lagao mehsoos karo aapko khud anubhuti hogi sach aur jhuth ka parda uthega magar jyadatar log in baato ko hazam nahi kar pate hai kyo ki unke pass guru hota nahi hai agar hota hai to puraa nahi hota hai kyoki pura guru shishya ke har baat ka jawab jaanta hai woh Un har jagah se guzar chuka hota hai jaha shisya aaj chalna chahta hai ek level tak Guru har un sawalo ka jawab de sakta hi hai jaha tak Shisya ko jarurat hai uske baad aage badhna Shishya ka kaam hai!
Jyadatar dekha gaya hai kayi udaharan hai dekhne ke liye jaha Shishya Guru Se Aage Nikal gaye magar kya iska matlab Guru Kam Pad Gaya Nahi Guru Ne hi kripa ki hai guru ne hi margdarshan diya hai jiske karan woh log aaj uss mukam pe pahuch paye hai Isiliye Guru Ki Mahatta to kahi se bhi kam nahi hoti hai...

1) Guru taaro paar na paayo prithvi na maalik tame taaro to ame tariye….
in shabdo ko sab se pehle likha hai maine yaha pe iska matlab dekhne me aur samajhne me bahut hi simple lagta hai par yaha baat agar dekhi jaaye to tyaag ki hai abb hum sochenge ki ye tyaag kya hai kis tyaag ki baat ho rahi hai to ek baar fir se dekhiye ki "Guru Taaro Paar Na Paayo Prithvi na maalik tame taaro to ame tariye" waah waah kya baat hai bass iss ek line ki madhurta tyaag samarpan ki bhavna isko saar me mein apne shabdo me samjhane ki koshish karta hoo ki Guru Jise hamne maana hai sirf maan lene bhar se yaa bol dene bhar se hum purna nahi hote hai Is pankti me Prithvi Yaane ki Sharir Hai Hamari "Deh", Sabhi jaante hai ki Santo ne jo bhi baate kahi hai, woh sabhi ki sabhi Apne Sharir se related hi hai isi "3 1/2" Haath ke andar poori ki poori shrusti unhone bataayi hai iss pure sharir ko hi unhone prithvi kaha hai aur yaha is pankti me bhi wahi baat aayi hai ki Jab Guru Karo To apne aap ko poori tarah se uske haatho me soup do poori tarah se uske prati supurd ho jaao use hi apna maalik samajh lo aur jis tarah se maalik ki har baat ko mante hai thik usi tarah se us malik ki puri baat ko maano, uske har ek vachan shabdo ko aadesh maano aur poora karo! Woh hi tumhe taarega, bhav paar utarega, woh Guno ka bhandaar hai, Uske Guno ki koi sankhya nahi hai, usme udaarta ki koi seema nahi hai tyaag me uske jaisa koi nahi hai uske paar paana mushkil hai uski chhatra chhaya me hamara uddhar hi hoga hame kabhi bhi kisi vastu ki kami mehsoos nahi hogi Bass Guru naam ki mala hi kaafi hoti hai 84 ko paar paa jane ke liye

2) Guru Brahma Guru Vishnu Guru Devo Maheshwaraaa…..



गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥


Yah ek sanskrut me likha huaa shlok hai jo jyadatar bachche bachche ke jubaan par hota hi hai is shlok me bataya gaya hai ki Guru ki upadhi ki koi varnan nahi hai Guru hi Sakshat Parmeshvar ka Swarup hai Guru Shrushti ke rachaita Brahma Uske Palak Shree Vishnu Aur uske Samharak Devo ke dev Mahadev Shree Mahesh Ke Samaan HaiGur Swayam Parbrahma ke Saman Hai Aur aise Gurudev Ko Main Naman Karta hoo..
Bahut hi adbhud lekh jiski koi tulna hi nahi hai iss tarah se Guru ko darshaya gaya hai yaha par


3) Guru Bin kachu upaje nahi bhakti vakti ko mool Ravi kahe jo patthar boya khet me to aave nahi phaguni phool….


Guru Bina kuch upaje nahi… iss pankti me Guru ki mahatta ko darshaya gaya hai ki vyakti ke jeevan me Guru ka kitna mahattva hota hai! Guru Ke bina naa hi bhakti poori ho pati hai naa hi mukti ho pati hai kyoki guru hi margadarshan karta hai in sabhi baato me, uske dwara dikhaya gaya rasta hi apne ko sahi manzil tak pahuchata hai! Prastut Saakhi Shree Ravi sahab ki hai Jisme unhone apne shabdo me Guru ki mahatta ko bataya hai Guru ke bina rehna thik usi prakar hai jaise patthar ko khet me bokar Kisi Upaj ki Apeksha karna jo ki nahi hone wala hai
Guru Karne pe hamare me woh uss beej ko, uski saadhna ko, uske yog ke phalit beej ko daal deta hai jiske karan hamare me uske phal lagte hai aur hum uski daali ke ek phal ki bhaanti ban jaate hai jo apne andar bi ek beej ko sama ke rakhta hai

4) Guru Gunga Guru Baawra Guru Devan Ka Dev Hoye Jo Chele Me Shakti To kare Guru ki Sev….

Yaha pe prastut pankti me chele ki pariksha(Exam) aisa kuch hi samajh lo inhe meine mere shabdo me hi samjhane ki koshish ki hai isiliye agar kisiko koi baat galat lage to kripya karke mujhe message comment kare taki main usme sudhar laa saku... haan to! baat aisi hai ki Guru Kisi Vishay me kuch jaldi bolta nahi hai, woh apne aap me ek madmast haathi jaisa hi hota hai ek nashe me jhumta huaa vyakti aap ne dekha hoga woh apni masti me hota hai jab tak uske aage aap na jaao yaa use naa toko tab tak woh apne aap me hi hoga usko tokne ke baad me bhi tokne waale ki kshamta (capacity) pe depend karta hai ki woh vyakti tokne wale ko jawab dega yaa apni masti me rahega;, same situation Guru ki bhi hoti hai "Devan Ke Dev" yaa keh sakte hai ki Devo ke Dev Jo ki hum sabhi jaante hai "MAHADEV" hai aur iss bare me kisiko batane ki avashyakata to nahi hai ki devo ke dev Mahadev kaise hai madmast apni duniya me mashgool ani samadhi me ramte huye Chaud Lok ki khabar rakhte huye, Bhoot, Bhavishya, Vartman ke gyaata itna hote huye bhi nirbhik, befikra ban ke apni avastha me hi rehte hai aur tab tak uss avastha ko vishram nahi dete jab tak koi patra unke samne naa aaye...
thik usi tarah Guru Dev bhi apne aap me hi hote hai aur jab tak koi Supatra Chela unke samaksha apne aap ko nahi rakhta hai, nahi sabit karta hai tab tak unke bhi gyaan ka pitara nahi khulta hai aur jab chela apni shakti(Samarthya) se guru ko rijhaane me kamiyab ho jata hai to uss chele ko sahi gyaan, marg darshan, guru se prapt hota hai! 
Guru Ki mahima ka varnan kar pana sahi me bahut mushkil hai fir bhi mujhse jitna ho pa raha hai main apni taraf se usko yaha likhne ki koshish kar raha hoo aur is vishaya ko hum aage leke jaate rahega..MORE












५ गुरु किसका होता है

 ५ गुरु  किसका  होता  है 

  गुरु  की  कोई  सीमा नहीं है! गुरु की कोई जात नहीं है गुरु का कोई एक देश नहीं है गुरु खुद एक देश एक विश्व एक ब्रह्माण्ड है! दास सत्तार की एक पंक्ति है जिसमे उसने फ़क़ीर की जानकारी दी है जो कुछ इस प्रकार है की

"वह है फ़क़ीर पूरा पारस जुबा हो जिसकी
और हो पदम कदम में बाकी सी अदा हो जिसकी"
छोटा बड़ा न कोई उसकी निगाह में होगा
नादान सा दिखे वह बच्चे सी जान हो जिसकी"

कुछ वैसा ही हिसाब किताब गुरु का भी है या यूँ कह सकते है की एक फ़क़ीर जो सभी का हीट ही चाहता है कोई उसके साथ में कैसा भी व्यवहार करे पर वह सबको ही तारता है! काफी बड़ी हद तक उसके लिए सभी सामान ही है!ठीक उसी प्रकार गुरु भी है! उसकी नज़र में सभी एक जैसे ही है! वह सभी में इश्वर के तत्व को ही देखता है! अगर आप ने कोई पाप किया है! तो इसका मतलब ये नहीं की गुरु आप को भगा देगा या आप को अपने पास नहीं बिठाएगा! वह बिठाएगा और आप को आप के किये हुए की प्रायश्चित भी कराएगा! सही मायने में देखा जाए तो गुरु किसी एक का न हो कर सर्वव्यापी है वह सभी का है किसी वास्तु से अंजान नहीं है ऐसा कोई सगुण नहीं जो उसमे न हो! इसीलिए गुरु को बंधन नहीं मुक्ति ही मानना चाहिए!

4 गुरु कहा होता है

 4 गुरु  कहा  होता  है 

                            इस  सवाल को आध्यात्मिक रूप से कृपया कर के न ले हम इस सवाल के जवाब को फ़िलहाल यहाँ  प्रैक्टिकली  ही  लिख  रहे  है  किसी  ऊंचाई  को  छूने  की  कोशिश  नहीं   कर  रहे  है!  जैसे  की  उपरोक्त  हमने  देखा  की गुरु कब मिलता है ठीक उसी से मिलता जुलता जवाब इस सवाल का भी है की गुरु कहा होता है?  तो जवाब होगा की गुरु हमेशा हमारी नज़रो के आस पास हमारे विचारों में होता ही है! मगर जब हम मुसीबत में पड़ जाते है तो ये देह धारी गुरु मिल के उसका निवारण करता है और ये काम वह किसी चमत्कार से नहीं बल्कि अपने शब्दों से ही कर देता है या कहिये की हमें शांति की अनुभूति करा देता है हमारे सिक्स्थ सेंस को जगह पे जग देता है हमें दिशा दिखा देता है! ऐसा गुरु जब व्यक्ति विशेष के रूप में हमें मिलता है तो उसकी वाणी उसका अंदाज़ सब कुछ हमारे दिल पे एक कटारी की तरह ही काम करती है! इसके ज्ञान की सीमा नहीं होती है! अध्यात्म के विषय में! मोक्ष के विषय में एक पास जो ज्ञान होता है वह तो बस सुनते ही बनता है! ये हमारे जैसे एक बीज को वृक्ष का रूप दे देता है!

आगे देखेंगे की गुरु किसका होता है!

SonicRun.com Sonic Run: Internet Search Engine Sonic Run: Internet Search Engine

मंगलवार, 29 मार्च 2016

Bhagwat Geeta PDF in different language

‘🌻अजपा’🌻 Shabd Artha

‘🌻अजपा’🌻                  
    अजपा अर्थात्
वह जप जो बिना प्रयत्न के अनायास ही होता
रहता हो। योगियों का मत है कि जीवात्मा अचेतन
अवस्था में अनायास ही इस जप प्रक्रिया में
निरत रहता है। यह अजपा गायत्री है-
सोऽहम् की ध्वनि जो श्वास प्रश्वास के साथ-
साथ स्वयमेव होती रहती हैं
इसी को प्रयत्नपूर्वक विधि- विधान सहित किया
जाय तो वह प्रयास ‘हंस योग’ कहलाता है। हंस योग के
अभ्यास का असाधारण महत्त्व है। उसे
कुण्डलिनी जागरण साधना का एक अंग
ही माना गया है।
बिभर्ति कुण्डली शक्ति रात्मानं हं सयाँश्रिता
तन्त्र सार
कुण्डलिनी शक्ति आत्म क्षेत्र में हंसारूढ़ होकर
विचरती है।
गायत्री का वाहन हंस कहा गया है। यह
पक्षी विशेष न होकर हंस योग
ही समझा जाना चाहिए। यों हंस
पक्षी में भी स्वच्छ धबलता-
नीर क्षीर विवेक मुक्तक आहार
विशेषताओं की ओर इंगित करते हुए निर्मल
जीवन सत् असत् निर्धारण एवं
नीति युक्त उपलब्धियों को ही
अंगीकार किया जाना जैसी
उत्कृष्टताओं का प्रतीत माना गया है किन्तु
तात्त्विक दृष्टि से गायत्री का हंस-
वाहिनी होना उसकी प्राप्ति के लिए
हंस योग की सोऽहम् की साधना
का निर्देश माना जाना ही उचित है।
देहों देवालयः प्रोक्त जीवों नामा सदा शिवः। त्यजेद
ज्ञानं निर्मालयं सोहं भावेन पूज्येत्-तंत्र
देह देवालय है। इसमें जीव रूप में शिव विराजमान्
है। इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं
सोऽहम् साधना से करनी चाहिए।
अन्तः करण में हंस वृत्ति की स्थापना
की यह साधना अजपा गायत्री
भी कहीं जाती है।
अजपा गायत्री का महत्त्व बताते हुए शास्त्रकार
कहते है-
अजपा नाम गायत्री
ब्रह्मविष्णुमहेश्वरी। अजपाँ जपते यस्ताँ
पुनर्जन्म न विद्यते-अग्नि पुराण
अजपा गायत्री ब्रह्मा, विष्णु रुद्र
की शक्तियों से परिपूर्ण है। इसका जप करने वाले
का पुनर्जन्म नहीं होता
अजपा नाम गायत्री योगिनाँ
माक्षदायिनी। अस्याः संकल्पमात्रेण सर्वपापैः
प्रमुच्यते-गोरक्षसंहिता
इसका नाम ‘अजपा’ गायत्री है, जो कि योगियों के
लिए मोक्ष के देने वाली है। इसके संकल्प मात्र
से सर्व पापों से छुटकारा हो जाता है।
अनया सद्दशी विद्या अनया सद्दशो जपः। अनया
सद्दशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति॥- गोरक्षसंहिता इसके समान
कोई विद्या है, न इसके समान कोई ज्ञान ही भूत-
भविष्य काल में हो सकता है।
अजपा नाम गायत्री योगिनाँ मोक्षदा सदा॥ शिव
स्वरोदय
अजपा गायत्री योगियों के लिए मोक्ष देने
वाली है।
श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम’ ध्यान
के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्तः भूमिका में
अनुभव करना- यही है संक्षेप में सोऽहम्
साधना।
वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती
है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है।
बाँसुरी से स्वर लहरी निकलने का
यही आधार है। जंगलों में जहाँ बाँस बहुत उगे
होते हैं वहाँ अक्सर बाँसुरी जैसी
ध्वनियाँ सुनने को मिलती है। कारण कि बाँसों में
कहीं कहीं कीड़े छेद
कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेग पूर्वक
टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर प्रवाह सुनने
को मिलता है। वृक्षों से टकरा कर जब द्रुत गति से हवा
चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई
पड़ती है। यह वायु के घर्षण की
ही प्रतिक्रिया है।
नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों
की तरह है। उनकी
सीमित परिधि में होकर जब वायु
भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ
स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-
प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न
होती है, पर इतनी
धीमी रहती है कि
कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन
सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे
श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं। प्राणायाम का मूल स्वरूप
ही यह है कि श्वास जितनी अधिक
गहरी जितनी मन्दगति से
ली जा सके लेनी चाहिए और फिर
कुछ समय भीतर रोक कर धीरे
धीरे उस वायु को पूरी तरह
खाली कर देना चाहिए। गहरी और
पूरी साँस लेने से स्वभावतः नासिका छिद्रों से टकरा
कर उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रवाह और भी
अधिक तीव्र हो जाता है। इतने पर
भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले
कानों से उसे अनुभव किया जा सकता है।
चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए। और भावना को
इस स्तर की बनाना चाहिए कि उससे श्वास लेते
समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द
अनुभूति होने लगें। उसी प्रकार जब साँस छोड़ना
पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि
‘हम’ ध्वनि प्रवाह विनिसृत हो रहा है। आरम्भ में कुछ समय
यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं
होती किन्तु क्रम और प्रयास जारी
रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का
ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है। और उसे सुनने में न
केवल चित्त ही एकाग्र होता है वरन् आनन्द का
अनुभव होता है।
सो का तात्पर्य परमात्मा और हम का जी चेतना-
समझा जाना चाहिए। निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त
महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश
करता है और अंग प्रत्यंग में जीवकोष तथा
नाडी तन्तु में प्रवेश करके उसको अपने संपर्क
संसर्ग का लाभ प्रदान कराता है। यह अनुभूति सो शब्द
की ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में
उतरनी चाहिए। और ‘हम’ शब्द के साथ
जीव भाव द्वारा इस कार्य कलेवर पर से अपना
कब्जा छोड़ कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़
की जानी चाहिए।
प्रकारान्तर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर
और मनः क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने
की ही यह धारण है,
जीव भाव अर्थात् स्वार्थवादी
संकीर्णता, काम क्रोध, लोभ, मोह
भरी मद मत्सरता- अपने को शरीर
या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा
भी दिग्भ्रान्त स्थिति का नाम ही
जीव भूमिका है। इस भ्रम जंजाल भरे
जीव भाव को हटा दिया जाय तो फिर अपना विशुद्ध
अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप
में ही शेष रह जाता है। कार्य कलेवर के कण-
कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और
जीव धारणा की
बेदखली यही है सोऽहम् साधना
का तत्त्वज्ञान श्वास प्रश्वास क्रिया के माध्यम से- सो और
हम ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जागृत किया
जाता है कि अपना स्वरूप ही बदल रहा ह अब
शरीर और मन पर से लोभ-मोह का वासना-तृष्णा
का आधिपत्य समाप्त ही रहा है और उसके
स्थान पर उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में
ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही
है। शासन परिवर्तन जैसी राज्यक्रान्ति
जैसी यह भाव भूमिका है जिसमें
अनाधिकारी अनाचारी शासनसत्ता का
तख्ता उलट कर उस स्थान पर सत्य न्याय और प्रेम संविधान
वाली धर्म सत्ता का राज्याभिषेक किया जाता है।
सोऽहम् साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः
प्रगाढ़ करती चली
जाती है और अन्तःकरण यह अनुभव करने
लगता है कि अब उस पर असुरता का नियन्त्रण
नहीं रहा उसका समग्र संचालन देव सत्ता द्वारा
किया जा रहा है।
श्वास ध्वनि ग्रहण करते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम’
की धारण में लगने चाहिए। प्रयत्न करना चाहिए
कि इन शब्दों के आरम्भ में अति मन्द स्तर की
होने वाली अनुभूति में क्रमशः प्रखरता
आती चली जाय। चिन्तन का स्वरूप
यह होना चाहिए कि साँस में घुले हुए भगवान
अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ
काय कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहें है। यह
प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है, वरन् प्रत्येक
अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। एक एक करके
शरीर के भीतरी
प्रमुख अंगों के चित्र की कल्पना
करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए उसमें
भगवान की सत्ता चिरस्थायी रूप से
समाविष्ट हो गई। हृदय फुफ्फुस, आमाशय, आँखों ,गुर्दे जिगर,
तिल्ली आदि में भगवान का प्रवेश हो गया। रक्त
के साथ प्रत्येक नस नाडी और कोशिकाओं पर
भगवान ने अपना-शासन स्थापित कर लिया।
बाह्य अंगों ने पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों ने भगवान
के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना
स्वीकार कर लिया। जीभ
वही बोलेगी जो
ईश्वरीय, प्रयोजनों की पूर्ति में
सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना, चलना आदि इन्द्रियजन्य
गतिविधियाँ दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन
करेगी। जननेन्द्रिय का उपयोग वासना के लिए
नहीं मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के
लिए अनिवार्य आवश्यकता का धर्म संकट सामने आ खड़ा होने
पर ही किया जाएगा हाथ-पाँव मानवोचित कर्तव्य
पालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न करेंगे जो ईश्वरीय
सत्ता को कलंकित करता हो। मस्तिष्क ऐसा कुछ न सोचेगा जिसे
उच्च आदर्शों के प्रतिकूल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित
न्याय विरुद्ध एवं अदूरदर्शी अविवेक भरा
निर्णय न करेगी। चित्त में
अवांछनीय एवं निकृष्ट स्तरीय
आकांक्षाएँ न जमने पायेगी। अहंता का स्तर नर
कीटक जैसा नहीं नर नारायण जैसा
होगा।
यही है वे भावनाएँ जो शरीर और
मन पर भगवान के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ
सिद्ध कर सकती है। यह सब
उथली कल्पनाओं की तरह
मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए वरन्
उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़
होनी चाहिए कि इस भाव परिवर्तन को क्रिया रूप में
परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े सार्थकता
उन्हीं विचारों की है जो क्रिया रूप में
परिणत होने की प्रखरता से भरे हों, सोऽहम्
साधना के पूर्वार्ध में अपने कार्य कलेवर पर श्वासन क्रिया के
साथ प्रविष्ट हुए महाप्राण की- परब्रह्म
की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिन्तन करना
पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रह
कर एक व्यावहारिक यथार्थता के-प्रत्यक्ष तथ्य के-रूप में
प्रस्तुत दृष्टिगोचर होने लगें।
इस साधना का उत्तरार्ध पाप निष्कासन का है।
शरीर में से अवांछनीय इन्द्रिय
लिप्साओं का- आलस्य प्रमाद जैसी दुष्प्रवृत्तियों
का-मन से लोभ, मोह जैसी तृष्णाओं का-
अन्तस्तल से जीव भावी अहन्ता
का-निवारण निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनाएँ
अत्यन्त प्रगाढ़ होनी चाहिए। दुर्भावनाएँ और
दुष्कृतियां- निष्कृष्टतायें और दुष्टताएँ-क्षुद्रताएँ और
हीनताएँ सभी निरस्त हो
रही है-सभी पलायन कर
रही है यह तथ्य हर घड़ी सामने
खड़ा दीखना चाहिए। उपयुक्तताओं के निरस्त होने
के उपरान्त जो हलकापन-जो सन्तोष-जो उल्लास स्वभावतः होता
है और निरन्तर बना रहता है उसी का प्रत्यक्ष
अनुभव होना ही चाहिए। तभी यह
कहा जा सकेगा कि सोऽहम् साधना का उत्तरार्ध
भी एक तथ्य बन गया।
सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय सो ध्वनि के
साथ जीवन सत्ता पर उस परब्रह्म परमात्मा का
शासन-आधिपत्य स्थापित होने की
स्वीकृति है। उत्तरार्ध में हम को-अहंता को-
विसर्जित करने का भाव है। साँस निकली साथ-साथ
अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ। अहंता
ही लोभ और मोह की
जननी है। शरीराध्यास में
जीव उसी की
प्रबलता के कारण डूबता है। माया, अज्ञान, अन्धकार, बन्धन
आदि की भ्रान्तियाँ एवं विपत्तियाँ इस अहंता के
कारण ही उत्पन्न होती है। इसे
विसर्जित कर देने पर ही भगवान का अन्तः
क्षेत्र में प्रवेश करना-निवास करना सम्भव होता है।
इस छोटे से मानवी अन्तःकरण में दो के निवास
की गुँजाइश नहीं है।
पूरी तरह एक ही रह सकता है।
दोनों रहे तो लड़ते-झगड़ते रहते हैं। और अन्तर्द्वन्द्व
की खींचतान चलती
रहती हैं भगवान को बहिष्कृत करके
पूरी तरह ‘अहमन्यता’ को प्रबल बना लिया जाय
तो मनुष्य दुष्ट-दुर्बुद्धि क्रूर-कर्मों से असुर बनता है
अपनी कामनाएँ-भौतिक महत्त्वाकाँक्षाएँ ऐषणाएं
समाप्त करके ईश्वरीय निर्देशों पर चलने का
संकल्प ही आत्म समर्पण है।
यही शरणागति है। यही
ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त होते
ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है तब
ईश्वरीय अनुभूतियाँ चिन्तन में उत्कृष्टता और
व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती हैं ऐसे
ही व्यक्ति महामानव ऋषि, देवता एवं अवतार के
नाम से पुकारे जाते हैं। ‘सो’ में भगवान का शासन आत्म-सत्ता
पर स्थापित करने और ‘हम’ में अहंता का विसर्जन करने का
भाव है। प्रकारान्तर से इसे महान् परिवर्तन का आन्तरिक
कायाकल्प की बीजारोपण कह
सकते हैं सोऽहम् साधना का यही है भावनात्मक
एवं व्यावहारिक स्वरूप
ईश्वर जीव को ऊँचा उठाना चाहता है
जीव ईश्वर को नीचे गिराना चाहता
है अस्तु दोनों के बीच रस्साकशी
चलती और खींचतान
होती रहती है। न ईश्वर श्रेष्ठ
जीवन क्रम देखे बिना सन्तुष्ट होता है और न
अपनी न्याय-निष्ठा क्रम-व्यवस्था तथाकथित
पूजा पाठ के कारण छोड़ने को तैयार होता है। वह
अपनी जगह अडिग रहता है और भक्त को
तरह-तरह के उलाहने देने, शिकायतें करने, लाँछन लगाने
की स्थिति बनी ही
रहती है। भक्त ईश्वर को अपने इशारे पर
नचाना भर चाहता है उससे उचित अनुचित मनोकामनाएँ
पूरी कराने की पात्रता-कुपात्रता
परखने की आदत छोड़ देने का अग्रह करता
रहता है। दोनों अपनी जगह पर अडिग रहें-दोनों
की दिशाएँ एक दूसरे की इच्छा से
प्रतिकूल बनी रहे तो फिर एकता कैसे हो
सामीप्य सान्निध्य कैसे सधे? ईश्वर प्राप्ति
की आशा कैसे पूर्ण हो?
इस कठिनाई का समाधान 'सोऽहम्' साधना के साथ जुड़े हुए
तत्त्वज्ञान में सन्निहित है। दोनों एक-दूसरे से गुँथ जाय-
परस्पर विलीनीकरण हो जाय।
भक्त अपने आपको अन्तःकरण आकांक्षा एवं अस्तित्व को
पूरी तरह समर्पित कर दे और
उसी के दिव्य संकेतों पर अपनी
दिशा धाराओं का निर्धारण करे। इस स्थिति की
प्रतिक्रिया द्वैत की समाप्ति और अद्वैत
की प्राप्ति के रूप में होती है।
जीव ने ब्रह्म को समर्पण किया है ब्रह्मा
की सत्ता स्वभावतः
जीवधारी में अवतरित हुई
दृष्टिगोचर होने लगेगी। समर्पण एक पक्ष से
आरम्भ तो होता है, पर उसकी परिणति
उभयपक्षीय एकता में होती है।
यह प्रेम योग का रहस्य है। यही भक्त के
भगवान बनने का तत्त्वज्ञान है। ईंधन जब अग्नि को समर्पण
करता है तो वह भी ईंधन न रहकर आग बन
जाता है। बूँद जब समुद्र में विलीन
होती है तो उसकी तुच्छता
असीम विशालता में परिणत हो जाता है। नमक और
पानी-दूध और चीनी
जब मिलते हैं तो दोनों की पृथकता समाप्त होकर
सघन एकता बनकर उभरती है।
यही है वेदान्त अनुमोदित जीवन
लक्ष्य की पूर्ति-परम पद की
प्राप्ति। इसी स्थिति को ‘अद्वैत’ कहते हैं।
शिवोऽहम्-सच्चिदानंदोऽहम्-तत्त्वमसि-अयमात्मा ब्रह्म-
की अनुभूति इसी सर्वोत्कृष्ट
अंतःस्थिति पर पहुँचे हुए साधक को होती है।
इसी को ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार एवं
ब्रह्म निर्वाण आदि नामों से पूर्णता के रूप में कहा गया है।

🌹गामडा नो गुणाकार.

🌹गामडा नो गुणाकार.
🐪🐃🐄🐐🐏🐢🐝🐯
🌍गामडा मा वस्ती नानी होय
☀घरे घरे ज्ञानी होय
❄आंगणीये आवकारो होय
☔महेमानो नो मारो होय.
🌈गाम मा चा पीवा नो घारो होय
🌀वहेवार ऐनो सारो होय
🚩राम राम नो रणकार होय
🍛जमाडवानो पडकारो होय.
🎊सत्संग मंडली जामी होय
🌅बेसो तो सवार सामी होय.
🎀ज्ञान नी वातो बहु नामी होय
🌟जाणे स्वर्ग नी खामी होय.
👵वहु ने सासु गमता होय
👪भेला बेसी जमता होय.
👼बोलवामा समता होय
👱भुल थाय तो नमता होय.
👲छोकरा खोला मा रमता होय
👩आवी मा नी ममता होय.
👳गईढ्या छोकराव ने 
👏समजावता होय
🌹चोरे बेसी रमडता होय.
💐साची दीशा ऐ वाळता होय
🌲बापा ना बोल सौ पालता होय.
🌺भले आंखे ओछु भालता होय
🌸तोय गईढ्या गाडा वालता होय.
🌵नीती नीयम ना शुघ्घ होय
🍀आवा घरडा घर मा वृघ्घ होय.
🌷मागे पाणी त्या हाजर दुघ होय
🍄मानो तो भगवान बुघ्घ होय.
🌻भजन कीर्तन थाता होय
🌳परबे पाणी पाता होय.
🌹महेनत करी ने खाता होय
👏पांच मा पुछाता होय.
💛देव जेवा दाता होय
💞भक्ती रंगे रंगाता होय.
💚प्रभु ना गुण गाता होय
💖अंघश्रघ्घा न मानता होय.
💜घी दुघ बारे मास होय
💗मीठी मघुर छास होय.
💙रमजट बोलता रास होय
❤वाणी मा मीठाश होय.
💛पुन्य तणो प्रकाश होय
💘त्या नक्की गुरुदेव नो वास होय.
🏡काचा पाका मकान होय
🍓ऐ माय ऐक दुकान होय.
🍊ग्राहको ने मान होय
🌽जाणे मलीया भगवान होय.
🍋संस्कृती नी शान होय
🍎त्या सुखी ऐना संतान होय.
🍏ऐक ओसरीये रूम चाय होय
🍇सौनु भेलु जमणवार होय.
🙏अतीथी ने आवकार होय
🌹खुल्ला घर ना द्वार होय.
🍉कुवा कांठे आरो होय
👈नदी केरो कीनारो होय.
👉वहु दीकरी नो वरतारो होय
👊घणी प्राण थी प्रारो होय.
👂कानो भले ने कालो होय
👌ऐनी राघा ने मन रूपालो होय.
✌वाणी साथे वर्तन होय
✋मोटा सौना मन होय.
🙌हरीयाला वन होय
👃सुंगघी पवन होय.
✊गामडु नानु वतन होय
👐त्या जोगमाया नु जतन होय.
☝मानवी मोती ना रतन होय
👇पाप नु त्या पतन होय.
👋शीतल वायु वातो होय
👎जाडवे जई अथडातो होय.
✋मोर ते दी मलकातो होय
💪घरती पुत्र हरखातो होय.
👍गामडा नो महीमा गातो होय
👌ऐनी रूडी कलमे लखातो होय.

है..जी...मारा गुरुजी ए पायो अगाध..

 है..जी...मारा गुरुजी  ए  पायो अगाध..
सतगुरु ए पायो अगाध..
प्यालो दुजो कोन पिवे..(2)

सत केरी कुंडी मारा संतो...
शब्द लिलागर...(2)

हो...एक.. तुं.....ही....सतगुरु गुटंन हार...(2)
प्यालो दुजो कोन पिवे.....

हे जी मारा गुरुजी ए पायो अगाध...(2)

श्र्वणे थी रेड्यो  रे मारा रुदये ठेराणो..(2)

हो...एक तुंही देहडी  मा हुवो रै रंणकार...(2)
प्यालो दुजो कोन पिवे...

हे जी मारा गुरुजी..पायो रे अगाध...(2)

चडते पियाले मारा संतो..
ए...गगन दरशाॅना ...(2)

हो..एक तुं ही..जमि ने आशमान...
प्यालो दुजो कोन पिवे..(2)

हे..जी मारा गुरुजी ए पायो अगाध  सतगुरु ए पायो अगाध..(2)

नाम मारे मारा संतो ए गुरुजी रुप मा रै...गुरुजी ना रुपमा..(2)

हो  एक तुं ही.. एक तुं ही..
बोल्या छे त्रिकंमदास....(2)

है जी मारा गुरुजी ए पायो अगाध..सतगुरु पायो  अगाध....(2)
  
   सतगुरु दैव की जय🌿👏🏻

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?
रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,
हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?
खलक सब नाम अपने को, बहुत कर सिर पटकता है,
हमन गुरनाम साँचा है, हमन दुनिया से यारी क्या ?
न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछड़े पियारे से,
उन्हीं से नेह लागी है, हमन को बेकरारी क्या ?
कबीरा इश्क का माता, दुई को दूर कर दिल से,
जो चलना राह नाज़ुक है, हमन सिर बोझ भारी क्या ?

Sharir Visha likhit thodi jankari

🏻जैसा हम सब जानते है की मानव शरीर 5 तत्व से बना हुआ है ये करीब करीब सब ही जानते है ।
लेकिन एक एक तत्व की पाँच पाँच प्रकृति भी है ये हम कम ही जानते है ।

हमारा शरीर तथा ब्रह्माण्ड का निर्माण एक जैसा ही हुआ है 
और सारा ब्रह्माण्ड हमारे अपने ही अंदर मौजूद है।
सभी तत्व हमारे शरीर में अपने अपने स्थान पर रहते हैं और ये सब अपनी अपनी प्रकृति के साथ हमारे शरीर ही वास करते है। जैसे:-

1पृथ्वी तत्व
2जल तत्व
3अग्नि तत्व
4वायु तत्व
5आकाश तत्व

🏻 तत्वों की प्रकर्ति के नाम 🏻

🏻पृथ्वी तत्व~ 
1हड्डी,
2मांस, 
3त्वचा, 
4रंध्र, 
5नाखून

🏻जल तत्व~
1🌿 खून
2🌿लार
3🌿पसीना
4🌿मूत्र
5🌿वीर्य

🏻अग्नि~
1भूख
2प्यास, 
3आलस्य
4निंद्रा
5जंभाई 

🏻वायु तत्व🌺
1🍃बोलना
2🍃सुनना
3🍃सिकुड़ना
4🍃फैलना
5🍃बल लगाना

👉🏻आकाश तत्व🌺
1🌿शब्द
2🌿आविर्भाव 
3🌿रस
4🌿गंध
5🌿स्पर्श

👉🏻इसी के साथ साथ हमारे शारीर में 👉🏻पाँच काम इंद्रियाँ , 
👉🏻पाँच ज्ञानेंद्रियाँ भी होती है 
जो इस प्रकार है 👇🏻

👉🏻काम इन्द्रियाँ🌺
1🌿पैर
2🌿गुदा
3🌿लिंग
4🌿मुंह
5🌿हाथ

👉🏻ज्ञान इन्द्रियाँ🌺
🍃आंख
🍃नाक
🍃कान
🍃मुंह
🍃त्वचा

इन सबके साथ साथ इनका भी निवास हमारी काया में होता है इनको को भी जान लीजिये जो इस प्रकार है
👇🏻

🌹मन🌹बुद्धि 🌹अहंकार 🌹परकर्ति🌹पुरुष(शिव ईश्वर अलख)

👉🏻 इन सब का ही हमारी मानव काया में निवास रहता है।

🌹इन सबका सही ज्ञान ही हमे हमको सही दिशा दिखा सकता है 
🌿जय गुरुदेव 🌿

Bhajan

અધિકાર વિના ભલે ગુરૂપદ પાવે. કેવડાને કેરી કેમ આવે.
દખા દેખીમા વખત ગુમાવેને.તે મહા પદ ને કેમ પાવે.
પાડા ને ભલે ને ખાણ ખવરાવે.પણ હાથી તે કદી નો થાવે.
શ્ર્વાન ભલેને સુંદર હોય પણ. જાતી સ્વભાવ નો જાવે.
મોરલીને ના દેડંડા ભલે ને ડોલે. પણ મણીધર તે કદી નો થાવે
ગીંગા હોય તેને ગંધ ભાવે.સુગંધ મા તે અકળાવે.
બગલા જુવો તો હંસ જેવા લાગે.એ ને મોતી નો ચારો નો ભાવે.
હાલ હાલે તે હંસ જેવી પણ શુધ્ધી તે મા કદી નો આવે.
સિંહણ ના દુધ ને સસલા નો પાવે. એ મા તે સિંહ કેમ થાવે.
ગુરૂ ને ભુલી ને ગાદી પતિ થાવે ને.પોતે ભુલે બીજા ને ભુલાવે.
ગુરૂ ગુણ ગાવે તો અધિકારી થાવે. જો ગુરૂના વચન ને નિભાવે.
દાસ નરશી ગુરૂકૃપા વિના.જીવ જરૂર ચોરાસી મા જાવે.


डर मुझे भी लगा फासला देख कर,
पर मै बढ़ता गया रास्ता देख कर !
खुद ब खुद मेरे नज़दीक आती गई,
मेरी मंज़िल मेरा हौसला देख कर !

जिंदगी उसी को आज़माती है,
जो हर मोड़ पर चलना जानता है !
कुछ पाकर तो हर कोई मुस्कुराता है,
जिंदगी उसी की होती है...
जो सब खोकर भी मुस्कुराना जानता है !

गीता पढ़ रहा था : शरीर मर जाता है,
परन्तु आत्मा जीवित रहती है !
लेकिन आज के समय में देख रहा हूं,
शरीर तो जीवित है परन्तु आत्मायें मर चुकी है 





स्वास स्वास मे भजीले वॅथा स्वास मत खोई... न जाने फिर  ईस स्वासं न को आवन होय के नहोय..





सती कहै पीयासै शुन पीया हमारी बात । मै कहु ईतना टालकै खैलौ माजन रात । सात वार सौला तती सौशट गडीरौ जाण । मै सस्कहु पीयाजी जुठ मत बखाण । गुरु दैव यू कहतै गुप्त भैद की बात । सुक्छमण की सैन है गुरु बीना कभी नही पैसान ।



सब तीरथ कर आई तुंबडीया Sab Tirath Kar Aayi Tumbadiya Artha Sahit

दास सतार ऐमनी वाणीमा सर्व श्रेष्ठ बोध आपी गया छे मनुष्य ने तुंबडीया ना नाम थी सबोंधी ने मनुष्य केसे के तु आखा जगत ना मंदिर ने आश्रमो फिदी आयो पण ऐमा तने सु मल्यु ? ने गंगा मा नाहियो ने गोमती मा तु नाहयो पण ऐनेथी सु ? अंतर आत्म् थी तो तु जागयो नहीं तो तुंबडा नाम ना कडवास धरावता ऐक धर्म ना काम मा लेवाता फळ जे माथी ऐकतारो पण बने छे ने साधु नु कंमडळ पण बने छे 

दास सतार साहेब नी वाणी माज जोइऐ ।

सब तीरथ कर आई तुंबडीया (2)
गंगा नाई गोमती नाई
अडसठ तीरथ धाई
नित नित उठ मंदिर मे आई
तो भी ना गई कडवाई
सतगुरु संत के नज़र चडी तब
अपने पास मंगाई
काट कुट कर साफ़ बनाई
अंदर राख मीलाई
राख मिलाकर पाक बनाई
तबतो गई कडवाई
अमरुत जल भर लाई तुंबडीया
संतन के मन भाई
ये बाता सब सत्य सुनाई
झूठ नहीँ रे मेरे भाई
"दास सतार" तुंबडीया फ़िर तो
करती फ़िरे ठकुराई ।

भजन अर्थ नी साथे
सब तीर्थ कर आइ तुंबडीया । सर्व जगया ऐ जातरा करीआया तोय जया हता ईया ज रीया मनुष्य । 

॥ गंगा नाई गोमती नाई 
अडसठ तीरथ धाई 
नित नित उठ मंदिर मैं आईं तो भी ना गई कडवाई ॥ 

गंगा मा नाया ने गोमती मा नाया नाया घणी नदियों ना नीरथी , शरीर तो धोया पण मनने न धोया । नितय रोज उठीने नित्य कर्म प्रमाणे मंदिरो तो घणा फरया ने जगत ना घणा मंदिर ने पगे लागिया , तोय मनना मेल न गया ने मनमा तो घर संसार नी चिंता ने घड़ी भर न विशरिया ।घड़ीभर मनने काबू मा न राखी शकया ।
॥ सतगुरु संत के नजर चडी तब अपने पास मंगाई 
काट कुट कर साफ बनाई 
अंदर राख मिलाई ॥
==> अडसठ धाम ने नदियों ना नीर नाही ने थाकया त्यारे संदगुरु ना सरणे गया त्यारे गुरु सत्य नु ज्ञान कराई ने मनने सुध करिया मनना मेल ना साफ करिआ ने जिव नी शिव साथे ऐकाकार कराया ।
॥ राख मिलाकर पाक बनाई , तब तो गई कडवाई , अमरुत जल भर लाई तुबडीया , संतन को मन भाई तुबडीया ॥
==> राख मिलाइ ने साफ करी मनना मेल ने भ्रम ने नष्ट करी ने गुरुजी ऐ संसार नी माया माथी मुकत करी कडवास ने धोई मिठास भरी । अमरुत जल --> सत्य अने ज्ञान थी त्यारे पात्र भराणु ज्ञान ना प्रकाश थया पसी साधु संत मा मान ने सनमान थी ओरखाणा ।

॥ ये बाता सब सत्य सुनाई 
झूठ नहीं मेरे भाई 
" दास सतार " तुबडीया फिर तो करती फिरे ठकुराई ॥

==> आ भजन ना लेखक " दास सतार " कहे छे के आ सनातन सत्य छे मारा भकतो आमा संका नु कियाय स्थान नथी मारा भाई दास सतार साहेब कहे छे पसी तो तुबडीया ( आपणे ) अलख पुरुष दुनियानु भलु करवा मा लागे छे ने हरी भजन मा चारे पहोर मसगुल रहे छे 
ईश्वर ने आत्मा नो तार ऐक थय जाय छे

🌹गुरुकृपा हि केवलम्🌹

संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

अर्थ :
 सज्जन को चाहे करोड़ों दुष्ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता. चन्दन के पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता.

દળી દળીને ઢાંકણીમાં ઉઘરાવવું

દળી દળીને ઢાંકણીમાં ઉઘરાવવું
 ને એવું કરવું નહિ કામ રે,
 આપણી વસ્તુ ન જાય અવસ્થા
 ને એ જવાનું લેવું નહિ નામ રે ... દળી દળીને.
 સેવા કરવી છેલ્લા જનમવાળાની
 ને ભજનમાં જોવા સંસ્કાર રે,
 જોવા પૂરવનું પુરૂષારથ હોય એહનું
 ને તો મેળવવો વાતનો એકતાર રે .... દળી દળીને.
 વિષયવાળાને આ વાત ન કહેવી,
 ને એથી રાખવું અલોપ રે,
 દેખાદેખી એ મરને કંઠી બંધાવે,
 ને શુદ્ધ રંગનો ચડે ના ઓપ રે ... દળી દળીને.
 ઉત્તમ જો કર્મ કરે ફળની આશાએ
 ને એવાને ન લાગે હરિનો લેશ રે,
 ગંગા રે સતી એમ બોલિયાં રે
 એઓ ક્યાંથી ભાળે અખંડ દેશ રે ... દળી દળીને.
 ઝીલવો જ હોય તો રસ
 ઝીલવો જ હોય તો રસ ઝીલી લેજો પાનબાઈ,
 પછી પસ્તાવો થાશે;

જુગતી તમે જાણી લેજો પાનબાઈ

જુગતી તમે જાણી લેજો પાનબાઈ !
 મેળવો વચનનો એક તાર,
 વચન રૂપી દોરમાં સુરતાને બાંધો,
 ત્યારે મટી જશે જમનો માર –
 ભાઈ રે ! જુગતી જાણ્યા વિના ભગતી નૈ શોભે.
 મરજાદ લોપાઈ ભલે જાય.
 ધરમ અનાદિયો જુગતીથી ખેલો
 જુગતીથી અલખ તો જણાય…. જુગતી.
 ભાઈ રે ! જુગતીથી સેજે ગુરુપદ જડે પાનબાઈ !
 જુગતીથી તાર જોને બંધાય,
 જુગતીથી ત્રણ ગુણ નડે નહીં
 જુગતી જાણે તો પર પોંચી જાય…. જુગતી….
 ભાઈ રે ! જુગતી જાણી તેને અટકાવનાર નવ મળે.
 તે તો હરિ જેવા બની રે સદા,
 ગંગા રે સતી એમ બોલિયાં રે
 તને તો નમે જગતમાં બધા… જુગતી….

ऐसा मेरा सत गुरु शब्द सुनाया प्रेम का सौदा करो तुम, प्रेम के व्यवहार में,

ऐसा मेरा सत गुरु शब्द सुनाया।सोहं सोयं कहे समझाया,बिन जिव्हा गुण गाया।टेक।
मूल कमल से पावन रोका,षट चक्कर पर लाया।
नाभी कमल मध्ये नागिन सूती, जानकी जाय जगाया।।१॥
नागिन मार नाभि से चलिया,मेरी दण्ड चढाया।
बंक नाल की गाडीवान होकर,दशवां जाप समाया॥२॥
दशवां देव दीदार दरसिया,झगमगाट होत जलाया। अष्ट पहर सुख पाता, यंदा निर्भय थाया॥३॥
सच्चिदानन्द मिलिया गुरु पुरा,अचल मार्ग बताया। दास गोपाल शरण सतगुरु की,फेर काल नहि खाया॥४॥


 ऐसा जोगी जग मे आया राम नाम का पट्टा लिखाया भूला जीवा ने आण जगाया भेद सुखमण का खोले हो मेरा सत्गुरु आया आगणा पापिहा बोले हे ! 

पाँच कोश पूरण समझाया सात भौमका कह समझाया खट शरीर खोल दर्शाया




प्रेम का सौदा करो तुम, प्रेम के व्यवहार में,
हानी और घाटा नहीं है, प्रेम के व्यापार में .
प्रेम में है स्वाद अद्‌भुत, प्रेम का प्याला पियो,
होके मतवाला विचरना, सीखो इस संसार में .
प्रेम से मन जीत लो, सब से निराला शस्त्र है,
जीत समझो अपनी पक्की, जय है उसकी हार में .
मेरे दाता प्रेम दे अपना, न दे तू कुछ मुझे,
इसमें सुख है, मीठा रस मिलता है इसकी मार में .
संत गुरु ने बताया, प्रेम की नवका चढ़ो,
पार जाओ, डूबते हो क्यों पड़े मझधार में .



કળજુગમાં જતિ સતી સંતાશે ને
કળજુગમાં જતિ સતી સંતાશે ને
 કરશે એકાંતમાં વાસ રે,
 કુડા ને કપટી ગુરુ ને ચેલા
 પરસ્પર નહીં વિશ્વાસ રે ... કળજુગમાં
 ગુણી ગુરુ ને ચતુર ચેલો પણ
 બેયમાં ચાલશે તાણાવાણ રે,
 ગુરુના અવગુણ ગોતવા માંડશે ને
 ગાદીના ચાલશે ઘમસાણ રે ... કળજુગમાં
 ચેલકો બીજા ચેલા પર મોહશે ને
 પોતે ગુરુજી થઈને બેસે રે,
 ગુરુની દિક્ષા લઈ શિક્ષા ન માને
 જ્ઞાન કે ગમ નહીં લેશ રે ... કળજુગમાં
 ચેલો ચેલા કરી કંઠીઓ બાંધશે ને
 બોધમાં કરશે બકવાદ રે,
 પેટને પોષવા ભીખીને ખાશે ને
 પુરુષાર્થમાં પરમાદ રે ... કળજુગમાં
 ધનને હરવા છળ કરશે ને
 નિતનવા ગોતશે લાગ રે,
 આસન ઉથાપી કરશે ઉતારા ને
 વિષયમાં એને અનુરાગ રે ... કળજુગમાં
 વાદવિવાદ ને ધરમકરમમાં
 ચૂકશે નહીં કરતા એ હાણ રે,
 ગંગાસતી કહે એવાથી ચેતજો
 કલજુગના જાણી પરમાણ રે ... કળજુગમાં

मै लिखुं अरजी किस नाम से,तेरा नाम ही नाम अनन्त है & "भगवान तुम्हारे चरणों में,नित ध्यान हमारा बना रहे

मै लिखुं अरजी किस नाम से,तेरा नाम ही नाम अनन्त है

मै लिखुं अरजी किस नाम से,तेरा नाम ही नाम अनन्त है॥टेक॥
सतयुग में सरियादे कुम्हारी, राम नाम की महिमा उचारी।
अग्नि झाल से बच्चा उभारी,भया राम नाम निज तन्त है।१।
ओम नाम की तिन है धारा,ब्रम्हा विष्णु ओर शिवप्यारा।
जिन्होने जगत रच दिया सारा,यू कहते वेद ओर सन्त है।२।
सत नाम कबीर जी ने ध्याया,बालद भर बणजारा आया।
मेवा मिष्ठाण सामग्री लाया,किया यज्ञ बे अन्त है।३।
मोरांची भजा  गिरधर गोपाला,विष का हो गया अमृत प्याला।
स्वर्ण हार भये सर्प काला,पति भये शरमन्द है।४।
सहस्ञ नाम सभी एक सारा,क्योंकी समिरन एक ही तारा।
'जीवनराम'हृदय माहीम धारा,जपे राम नाम निज सन्त है।५।

"भगवान तुम्हारे चरणों में,नित ध्यान हमारा बना रहे

"भगवान तुम्हारे चरणों में,नित ध्यान हमारा बना रहे।सुबह शाम हर वक्त सदा ही हरी नाम हृदय से जमा रहे।१।
विघ्न विरोध बुराइयों से हमें सदा बचाते आ रहे।२।
ऐसी दया करो हम ऊपर सदा भजन मे लगे रहे।३।
'जिवनराम' शरण में तेरी भक्ती पद अधिकार रहे।४।


ऐसा ज्ञान हमारा साधो, ऐसा ज्ञान हमारा रे।।

🌹ओम तत् सत् ओम🌹
ऐसा ज्ञान हमारा साधो,
ऐसा ज्ञान हमारा रे।।
जङ चेतन दो वस्तु जगत में,
चेतन मूल अधारा रे।
चेतन से सब जग उपजत है,
नहिं चेतन से न्यारा रे।।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी,
नहिं कछु भेद विकारा रे।
सिन्धु-बिन्दु सूरज दीपक में,
एक ही वस्तु निहारा रे।।
पशु पक्षी नर सब जीवन में,पूरणब्रह्म अपारा रे।
ऊँचनीच जग भेद मिटायो, सब समान निर्धारा रे।।
त्याग ग्रहण कछु कर्तव्य नाहीं
संशय सकल निवारा रे।
ब्रह्मनंदरूप सब भासे,  यह संसार पसारा रे।।
    🙏🏻 जय गुरू देवा🙏🏻


Suajanya Whatsapp Santvaani bhajan Group
To Join Message on 9987491661

ओ साधू भाई मेरा भेद में पाया ।

टेर  ओ  साधू भाई  मेरा भेद में पाया ।
मै हु रे ब्रह्म  अटल अविनासी ।
नहीं हमारे छाया ।
1
इच्छा फोर धरी धन काया धरता ही नाम धराया ।
सुतो जीव अचेत नींद में 
उनको आय जगाया ।
ओ साधो भाई मेरा भेद..........
2
ओ कारण काज फिरियो  इण जुग में 
निर्पक्ष ज्ञान सुनाया ।
भड़कियो जीव भरमना उपजी 
कोई एक शीश  नमाया ।
3
छपियो जीव शरण के माई त्राटक तुरंत तोड़ाया।
आवागमन अलप कर दीनी दूर किया दुःख दायाँ ।
4
कर्म काट कोने कर दीना सत् का वचन सुनाया।
चन्दन सा चेतन का डंका 
अमर लोक पोहचाया।
ओ साधो भाई मेरा भेद में पाया मै हु रे ब्रह्म अटल अविनासी ।
नहीं हमारे छाया ।
Suajanya Whatsapp Santvaani bhajan Group
To Join Message on 9987491661

Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi

Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi
Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi

Jaha Mere Apane Jaha Mere Apane
Sivaye Kuchh Naahi

Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi
Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi

Pata Jab Laga Meri Hasti Ka Mujhko
Pata Jab Laga Meri Hasti Ka Mujhko
Siva Mere Apanie Siva Mere Apane
Siva Mere Apanie Siva Mere Apane
Kahi Kuchh Naahi

Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi
Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi
Kahan Leke Aayi Kahan Leke Aayi

Ye Parda Hai Duee Ka
Hata Parda Dekha

Parda Hai Duee Ka
Parda Hai Duee Ka
Hata Parda Dekha

Parda Hai Duee Ka
Hata Parda Dekha

Bus Ek Mai Hu
Mai Hu

Bus Ek Mai Hu
Mai Hu
Yaha Juda Kuchh Naahi

Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi
Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi

Aare Mai Hu Aanad Aanad Hai Ye Merea
Aare Mai Hu Aanad Aur Aanad Hai Ye Merea
Aare Mai Hu Aanad Aur Aanad Hai Ye Merea

Ajab Hai Ye Masti Ajab Hai Ye Masti
Ajab Hai Ye Masti Ajab Hai Ye Masti

Ajab Hai Ye Masti Ajab Hai Ye Masti
Ajab Hai Ye Masti Ajab Hai Ye Masti

Ajab Hai Ye Masti Piya Kuchh Naahi
Ajab Hai Ye Masti Piya Kuchh Naahi

Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi
Mujhe Meri Masti Kahan Leke Aayi
Kahan Leke Aayi Kahan Leke Aayi


Suajanya Whatsapp Santvaani bhajan Group
To Join Message on 9987491661

गुरु से लगनी कठीन मेरे भाई

लगनी लाग्या विना पार नही पहोचे जीव प्रलय हो जाय गुरु से लगनी कठीन मेरे भाई.......(2)

मिरगा नाद शब्द  का भेदी शब्द  सुन्न कु गाई...(2)
सुन्त  ही नाद प्राण दान देवे..
देत शीश न डराई....(2)

गुरु से लगनी कठीन मेरे भाई....(2)

चातॅक स्वाथी बुंद का प्यासा....
पियु पियु रटलाई...(2)

निशदिन प्यास प्राण मरजाई.
अवर निर नही  भाई...
गुरु से लगनी कठीन मेरे भाई...(2)

दोई दिल आई खडा जब सनमुख..सूरा लेत लडाई...(2)
टुक टुक होई पडे धरणी पर..
खेत छांड्या नव जाई..
गुरु सै लगनी कठीन मेरे भाई..

सजी शिंगार सती जब निकशी..सत चडन कु जाई..(2)
पावक देखी ने डरे नही दिल मे..ए..कुद पडेछे मांही. .
गुरु सै लगनी कठीन मेरे भाई..(2)

छोडो आशा अपने तन की..
निरभे होई गुण गाई...

कहत कबिर शुनो भाई साधो..भव जल फेर न आई...

गुरु सै लगनी कठीन मेरे माई..


Suajanya Whatsapp Santvaani bhajan Group
To Join Message on 9987491661

तु...ने...मण्यो मनुष्य अवतार....माड करीने...

तु...ने...मण्यो मनुष्य अवतार....माड करीने...
तोये भजया नही  भगवान हेत धरीने....अंते खाशो जम नो मार पेट भरीने...
माटे राम नाम सभार.....

गयी पण पाछी फेर नही आवे मुरख  मुड गमाय...
भव सागर नी भुलवणी मा विती गया जुग चार..
फेरा फरीने.......

जठराअग्नी मा जुग्ते राख्यो
नव मास निराधार....
स्तुती कीधी अलबैला नी बार धर्यो अवतार..
माया मोही ने......

कणजग कुडो रंगे रुडो..
कहेता ना आवे पार...
जप तप तिरथॅ कछु न करीया
एक नाम आधार....
कृष्ण  कहीने.....

गुरु गम पायो मन ने छायो
जुगती करी जादुराय..
गंगादास कु  ज्ञान बतायो रामदास महाराज.....कृपा करीने.......

Satya Vachan

संग न करो राजा का क्या पता कब रूलादे
संग करो तो संतो का क्या पता कब हरि से मिलादे

जब तक विकार है, विश्राम संभव ही नहीं। अविकार की भूमिका विश्राम का स्वरूप या कहें कि विश्राम की पहचान है। प्रेम ही इस भवसागर से पार उतारने वाला एकमात्र उपाय है। प्रेमी बैरागी होता है, जिससे आप प्रेम करते हैं, उस पर न्यौछावर हो जाते हैं। त्याग और वैराग्य सिखाना नहीं पड़ता। प्रेम की उपलब्धि ही वैराग्य है। जिन लोगों ने प्रेम किया है, उन्हें वैराग्य लाना नहीं पड़ा।

निरगुण चरखीडो

निरगुण चरखीडो

में पतिव्रता नारी पियाकी,
   बाहेर कबहु न जाऊं
चरखां फेरु पियाकुं हेरु.
आन पुढष नही चाहु..

लाल रेंटीयो रै लई फेरु घरमाही...

आरा पांचा पच्चीसे पंखा.
नवे डामणे बंध्या.
कल देखी कांतू गुरु गमसें
आठ पहोर ए धंधा....

तोरणीयां ने त्राक थाभली.
मणी सूराकी जुक्ती..
शील संतोष ज्ञान वैरागे.
विध विध करीयें विक्ती..

उलटा सूलटा माण फीरत है
त्राक तार सूध राखी.
तुंही तुंही.रेटीयो बोले.
अनले कोकडी आखी.

त्रिवेणी ना तीर ज उपरे.
शब्दातीत्  सुतरीयो.
सुतर सहीत मुजकुं वोरी
 माल वखारे भरीयो.

अनेक खसम कीया वण समजे.
सतगुरु बंधन त्रोडया .
रविदास पतिव्रत पियुकी.
स्हने सुतरीये जोडया

लाल रेंटीयो रे लई फेरु दरमाई.....

३ गुरु कब मिलता है

३ गुरु कब मिलता है


बहुत ही जल्दी इसकी परिभाषा अगर कर दूँ तो बहुत से लोगो का आडम्बर धरा का धरा रह जायेगा दुनिया कहती है की गुरु बड़े सौभाग्य से मिलता है मगर हक़ीक़त इसके एकदम विपरीत है मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ की गुरु दुर्भाग्य से मिलता है! परन्तु जब हमें गुरु मिलता है तब जो हमारी स्थिति होती है वह बड़ी ही दुर्भाग्यपूर्ण ही होती है! अब इसे कोई माने या न माने मगर हक़ीक़त तो यही है की जब हम बड़ा ही दुर्भाग्य पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे होते है या किसी बड़े मुसीबत में फंस जाते है! या किसी बड़े लालच में अपने आप को खो गए रहते है तभी गुरु के आगमन की भूमिका तैयार होती है मतलब गुरु के आने की तयारी हो जाती है! और ये गुरु या गुरु तक ले जाने वाला व्यक्ति पहले से हमारे बीच में ही होता है मगर कहते है ना "बगल में छोरा शहर में ढिंढोरा" बस वैसा ही कुछ हिसाब किताब है इसका भी! ज़रुरी नहीं है की वह आस पास ही हो कभी कभी ये अचानक कही भटक भी जाता है और हमारी स्थिति को भी भांप लेता है! चाहे जो समझो पर स्थिति यही होती है की करो या मरो वाली! और जब इस स्थिति में हम होते है तभी इस गुरु की कोई ऐसी बात हमें कान में पड़ती है जो हमारी दिशा पलट देती है! और गुरु का काम भी तो वही है की गलत दिशा में चल रहे व्यक्ति को सही सीधी दिशा में ले के जाना! ऐसा गुरु के शब्द कान में पड़ते ही हमारा मंथन शुरू हो जाता है! और जब हम उसके साथ दोबारा मिलते है या बातो को आगे बढ़ाते है तब जा कर के ये अध्यात्म का मार्ग खुलता है! और सही रूप में हम उस व्यक्ति को अपना गुरु मान लेते है! ऐसे गुरु की वाणी का जादू तो बस पूछो ही मत उसके पास ज्ञान का भंडार तो ऐसा जान पड़ता है की गूगल भी काम जानकारी समेटे हुए है! और आखिर क्यों लगे न गुरु होता ही गुण रूप है और यही कारन है यही ज़रिए है और यही वह परिस्थिति है जब गुरु मिलता है! बाकि दुनिया कुछ भी बोले कैसे भी बताये या कुछ भी समझाए पर पर प्रैक्टिकली खदु मैंने और जितनो से मिला हूँ उनकी भी सिचुएशन यही थी इसीलिए मुझे यही सही लगता है! या ऐसा भी कह सकते है की एक ये भी है! क्योंकि प्रकृति हमेशा अपने बिच अपवाद रखती है ही है! अब आगे देखेंगे की गुरु कहा होता है!

2 गुरु क्या है

2 गुरु क्या है जो भी व्यक्ति विशेष हमें जीवनोपयोगी (Usable in Life) से रिलेटेड कोई जानकारी देता है तो वह गुरु के सामान ही है पर इस गुरु की वैल्यू उसके सम्मान की एक सीमा बांध जाती है ये गुरु भी आप के साथ एक लिमिट तक एक हद तक ही साथ होता है जैसे की विद्यालय में अक्षर ज्ञान लेते समय जो विद्यालय के शिक्षक होते है! या तो कारोबार को सीखने वाले जो की हमारे आदर्श हमारे गुरु जो भी है इन-फैक्ट हर वह बात हमें जो हमारे लाइफ में काम में आती है उसे सीखने वाला ही गुरु है और जो हमें उसके दर्शन करा दे उसके साथ में हमारा विवाह करा दे हमारा उसके साथ सम्बन्ध जोड़ दे वही हमारा असली आध्यात्मिक का, मोक्ष दिलाने वाला, उसके राह पे ले जाने वाला गुरु है! यही वह गुरु है जिसकी कामना, जिसके वचन मात्र ने हमें आज यहाँ तक पंहुचा दिया! ये गुरु का बखान हो नहीं सकता है वह सिर्फ हम महसूस भर ही कर सकते है! उसके लिए बोलना मतलब सूरज को दिया दिखने बराबर ही है! हमारे कुछ शब्दों में सिमट कर वह सिर्फ एक एहसास बन सकता है सामने वाले के लिए पर उसकी सही महिमा उसका सही सही आकलन कर पाना तो बहुत ही मुश्किल है या तो कह सकते है की नामुमकिन है! यही वह गुरु है जो हमें भ्रम से ब्रह्म, ब्रह्म से ब्रह्मा और परम तत्व तक ले के चला जाता है! या यूँ कहे की वह तक जाने का मार्ग सुझा देता है! ऐसे गुरु की आस रखना ही हमारे जीवन की बुनियाद को मजबूत बन देती है! ऐसा गुरु करने पर मिलने वाली जो अनुभूति होती है वह तो बस अनुभूति करने वाला ही जाने! बहुत थोड़े में ही लिख रहा हूँ इसको आगे चल के विस्तार से भी जानेंगे परन्तु अभी कम से कम इतना तो समझने के लिए काफी ही होगा अब हम जानेंगे की गुरु कब मिलता है!

सोमवार, 28 मार्च 2016

१ गुरु कौन है

१ गुरु कौन है जब व्यक्ति जन्मा लेता है तब उसको इस श्रुष्टी में होने वाली किसी बात की जानकारी होती नहीं है सभी वस्तुएँ उसको दिखाई, बताई, समझाई जाती है और ये सब बाते स्टेप बी स्टेप होती है जैसे की उसको खान खाने, के लिए पिता, माता, मामा, काका, नाना, दादा ये सब रिश्ते बताने समझाने जो भी है फिर वह उसके माता पिता हो या कोई और रिश्तेदार या पहचानने वाला कोई भी ये ही वह पहले गुरु होते है सही मायने में!! ज्यादातर जगहों पे लिखा होता है या बताया जाता है की माँ पिता ही प्रथम गुरु होते है और ये बात गलत भी नहीं है क्योकि उपरोक्त सभी बाते वह ही लोग सीखते है पर यदि किसी कारन वश दुर्भाग्य से ये लोग न हो तो इनके आलावा जो भी इन बातो का ख्याल रखता है या बताता है वह ही उस व्यक्ति का प्रथम गुरु होता है! इस प्रथम गुरु के बाद में व्यक्ति मिलता है अपने जीवन के दूसरे पड़ाव में आने वाले दूसरे गुरु से जो की उसे अक्षर ज्ञान देते है जैसे की स्कूल, कॉलेज या कोई कोर्स के वक़्त (अब बहुत लोगो का सवाल होगा की कितने गुरु मिल गए उपरोक्त प्रथम गुरु में ही तो इसे द्वितीय या दूसरा गुरु क्यों कहा तो मैं अपने तथ्यों को क्लियर कर दो की सेकंड लेवल का गुरु है ये ना की लाइफ में मिलने वाला सिर्फ दूसरा व्यक्ति जो गुरु की तौर पे मिला है) ये भी गुरु ही है! तीसरा पड़ाव आता है कामना और घर सम्भालना जिसे हम गृहस्थ जीवन भी कह सकते है इसमें भी एक गुरु मिलता है पर ये गुरु का रूप थोड़ा बाकि के दो गुरु से अलग होता है ये गुरु को आप एक आदर्श के रूप में देख सकते है! ये गुरु आदर्श स्वरुप होता है जिसे देख के हमें अपना करियर चुनने में और अपने आप को आगे की और अग्रसर करने में सहायता मिलती है मगर हम इसे हक़ीक़त में गुरु की उपाधि दे नहीं पाते है या कहिये की मानते ही नहीं है मगर ध्यान दिया जाए तो वह भी एक गुरु ही है! चौथा गुरु जो की सबसे अहम है जरुरी है, सर्व ज्ञाता, सर्व गन संपन्न, है वही एक्चुअली गुरु है जिसकी कामना हम करते है यही वह गुरु है जो हमें सतगुरु के दर्शन करा देता है ८४ के झंझट से उसके बोझ से मुक्त करा देता है हर तरह की मोह माया के बंधन को तोड़ देता है या कहिये की तोड़ने की ताकत हमारे अंदर झोंक देता है उसके एक शब्द का व्यापर कर के ही हम भव दरिया को पार कर लेते है ऐसे गुरु की कामना हम करते है और यही वह गुरु है जिसे हम ढूंढते है!

“गुरु ”

“गुरु ”

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥१॥


!!गुरु तारो पार न पायो!! !!गुरु जी नी महिमा हु तो पल पल वखानु!! !!धन गुरु देवा मर धनगुरु दाता!! !!गुरु बिन कछु उपजे नहीं!! !!गुरु गोविन्द दोहु खड़े!!!
और न जाने क्या क्या लिखा हुआ है संतो, महात्माओ ने गुरु के बारे में की वखान करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन जैसा लगने लग जाता है! जो शब्द हमारे दिमाग में घूमते है वह सभी शब्दों को पहले से संजोया गया है लिखने वाले लिख के चल दिए हम सिर्फ व्याख्या और वखान करते रह जाते है..

"गुरु गुरु गुरु"
ना जाने कौन से पुण्य कर्म किये जो जगह जगह गुरु का साक्षात्कार हुआ और हम बहुत से प्रोब्लेम्स से पर हो गए!  
गुरु के लिए मेरी एक शॉर्टकट डेफिनिशन है जिसको मैंने सोचा है समझा है और लिख रहा हूँ हम इसे और डिटेल करेंगे मगर पहले शार्ट-कट तो थोड़ा जान ले! गुरु को जानने के लिए पहले तो कुछ सवाल 
१ गुरु कौन है? २ गुरु क्या है? ३ गुरु कब मिलता है? ४ गुरु कहा होता है? ५ गुरु किसका होता है? ये पांच सवाल है जिसका जवाब भी गुरु के इर्द गिर्द ही होता है और इनके जवाब मिलने पर गुरु का मिलना बहुत ही आसान हो जाता है!  
इन सभी के जवाब मैं आप को निचे क्रम में लिख के दे रहा हूँ जो की मेरी समझ से है इसमें किसी और को कोई आपत्ति हो तो मुझे संपर्क कर सकता है!

Ek Suruaat

Date 28th of March 2016


             हमेशा से एक ख्याल दिल में आता है की जो भी होता है उसके पीछे क्या कारन है हम जिस भी रस्ते पे चलते है उससे क्या हासिल करना चाहते है तो एंडिंग पॉइंट पे एक ही जवाब है की शान्ति, जी हां मगर ये शांति हमें मिलती है क्या??? क्या सही में हम शान्ति की अनुभूति को अपने अंदर समां पाते है??? क्या हम शान्ति का सही सही अर्थ जानते भी है?? और अगर जानते है तो क्या हम उसके राह में चलते है?? ये सभी प्रश्नों के जवाब सरल रूप पे बता पाना थोड़ा मुश्किल है! मगर नामुमकिन नहीं सिर्फ शब्दों की कमी के कारन ही हम सही ताल मेल नहीं बिठा पा रहे है और जो कुछ भी हमें कहना है नहीं कह पा रहे है तो आइए थोड़ा प्रकाश इस और भी डालने की कोशिश करते है शायद आप को थोड़ी सी मदद मिल जाए समझने में!! कुछ लोगो का जवाब जिन्हे हम बुद्धिजीवी भी कह सकते है "की जी हाँ शांति मिली है हमें हमने हमारी इच्छा को हमारे लोगो की डिमांड को पूरा किया है और हमें शांति मिली" 
अब दोबारा शब्दों पे ग़ौर करेंगे तो पाएंगे की उन्हें शांति नहीं मिली है जब उन्हें उनकी मन की दशा के बारे में बोलने के लिए कहा जायेगा तो हमें एक्चुअल जो जवाब मिलेगा वह होगा "ना" क्योंकि जिस इच्छा की पूर्ति हम करते है वह से ही दूसरी इच्छा जन्मा लेना शुरू कर देती है! कबीर ने अपनी पंक्ति में इन शब्दों को कहा है की "आशा तृष्णा मिटे नहीं कह गए दास कबीर"

उदहारण के तौर पे समझने के लिए देखते है की.. हम चाहते है की शादी हो जाये और कुछ टाइम में हो जाती है शादी होने के बाद शांति मिलती है??? नहीं मिलती फिर दूसरी इच्छा होती है की बच्चे हो जाये ! बच्चे के बाद में इच्छा होती है की वह लड़का हो या लड़की हो जैसी जिसकी सोच होती है वैसा डिमांड सोच के हिसाब से होने के बाद में भी शांति नहीं मिलती फिर दूसरी इच्छा की वह अच्छा निकले अच्छा निकले तो ठीक नहीं निकलता है नालायक निकलता है तो फिर हम अशांति में ही आ जाते है! अच्छा निकलता है तो भी इच्छाएं बढ़ती जाती है की अब उसकी शादी, नाती पोते दादा बनना है नाना बनना है etc etc…. मतलब एक्चुअली शांति मिलती है ही नहीं और अंत में हम पहुंचते है कहा मंदिर में, किसी गुरु की शरण में की भाई बहुत हो गया अब कुछ ज्ञान की बात करो तो शान्ति मिले!!! ;);) और ले देके कोई कितना भी पैसे वाला हो कैसा भी हो लास्ट में शान्ति उसे यही मिलती है तो ये सब क्यों इतना घूमने घुमाने का चक्कर क्यों जितना उस उपर वाले ने दिया उसमे शांति क्यों नहीं मानते है या जो भी मिलता है उसको पचा क्यों नहीं पाते है ये सीखना हमे बहुत जरुरी है! बहुत से गुरु संत महात्मा आज ढोंगी स्वरुप बनाए घूमते रहते है जिनका खुद का उद्धार नहीं है! वह तुमको क्या उद्धार दिलाएंगे, फिर भी हमारी मानसिकता देखिये सब कुछ देखते समझते हुए भी हम अंधे और अबोध बनते है क्योकि हम लोगो के हाथ पाँव, इन्होने बाँध के रख दिए है जैसे की “फैमिली डॉक्टर” दवाई असर नहीं कर रही है फिर भी हम उसके पास ही जा रहे है क्योकि फॅमिली डॉक्टर है और वह भी ऐसा ही करता है की कुछ न कुछ एंटीबायोटिक देकर टाइम पास जारी रखे हुए है ना खुद ठीक करेगा न तुम्हे कहीं और जाने देगा! और फिर! 'भाई, जाने दे भी क्यों उसकी जीविका चल रही है तुम से वह भी तुम्हे नचाता रहेगा जब तक तुम खत्म नहीं हो जाते… मगर यहाँ देखने वाली चीज़ है की जैसे डॉक्टर सब के सब ख़राब नहीं है मगर लेवल होता है कोई RMO हो या सिर्फ कान का या दांत का ही डॉक्टर हो तो हम उसे डॉक्टर ही कहेंगे कुछ और नहीं ठीक वैसे ही जो गुरु होता है वह गुरु ही है मगर उनका भी एक लेवल है कोई अच्छी बाते जानता है, किसी को अच्छे व्यवहार के बारे में बारीकी से जानकारी होती है किसी में शालीनता की भरमार होती है! कोई शब्दों के खेल में पारंगत होता है कोई योग विद्या का धनि होता है हर व्यक्ति जो गुरु कहलाता है किसी न किसी गुण का धनि तो है ही और उस गुण के आधार पे ही वह आगे की और बढ़ता है! है ये सब ही गुरु है मगर हमको इन सब से ऊपर इन सभी का मिला जला स्वरुप चाहिए जिसके पास ये सब कुछ हो और आगे बढ़ने के साथ साथ आगे बढ़ने की ताकत रखता हो ऐसा देह धरी गुरु हमे ढूंढना है! अच्छा जब ये पता चल गया है की गुरु ढूँढना है तो ये जानना भी जरुरी है की गुरु है क्या और गुरु कैसा होता है गुरु की व्याख्या काया है आज विस्तार में हम गुरु की चर्चा करेंगे 

ध्यान

ध्यान क्या है!
"ये ध्यान के प्रकार अलग-अलग है, उसकी समझ बहुत बारीक़ है और इफ़ेक्ट तो अपार ही है, इसमें कोई दो राय नहीं है, ना ही हो सकती है! क्योंकि आम इंसान/पहुंचा हुआ इंसान/या कोई भी तरह का इंसान हो या जानवर ही क्यों न हो बिना ध्यान के कुछ नहीं कर सकता है! आप पैदा होने के बाद से ही खाने में, पीने में , चलने में , काम में, पढ़ाई में हर जगह आप ने ध्यान ही दिया है और इस ध्यान ने ही आप का काम किया है जिसके कारन आप उस काम को पूरा कर पाए है और जो काम अनायास ही हुआ भी है उसमे भी आप का ध्यान ही था जो उस और ले गया और उसका एहसास करा पाया इस तरह से देखेंगे तो ध्यान ही सब कुछ है" ध्यान कैसे लगाए पहले तो बेसिक से स्टार्ट करते है हम! सब से पहले किसी शांत जगह को फिक्स कर लीजिए, उसके बाद एक बार जगह मिल गयी तो उस जगह पे कोई गरम वस्त्र जैसे चादर, शाल इत्यादि कुछ बिछा लीजिए उसके बाद उस पे योग के "आसन" के हिसाब से बैठ जाइये जैसा की इस तस्वीर में दिखाया है!


बैठने के और भी तरीके है जो लोग अपनाते है पर ये मुद्रा अच्छी और सरल है अतः इसे ही प्राथमिकता मैंने दी है इस तरह से ध्यान लगने की शुरुआत करने की तैयारी हो जाने के बाद में आप अपनी आँखों को शुरुआती तौर में बंद कर लीजिए और अपने आस पास की आवाज़ों को सुनने का स्टार्ट कीजिये आप के आस पास बहुत तरह की आवाज़ चलती रहती है उन सभी आवाज़ों को सुनिए जितना अच्छा ऊंचा और क्लियर सुनना शुरू करेंगे उतना अच्छा ये आप के मस्तिष्क में एक तरंग पैदा करना शुरू कर देगा और धीरे धीरे कर के ये सभी आवाज़ शांत होने लगेगी और आप को अपनी अंदर चल रही आवाज़ सुनाई देनी शुरू हो जाएगी ये आवाज़ आप के साँसों की है जो आप अंदर लेते है और बहार छोड़ते है जब ये आवाज़ आपको आनी शुरू हो जाएगी तब इसकी आवाज़ ही आप को यथार्थ का दर्शन कराएगी ये आवाज़ होगी उस शून्य की! उस निराकार की! ब्रह्माण्ड में गूंज रहे उस ओम की जिसे सोऽहं भी कहा जाता है! जब सांस अंदर की और खींचने की क्रिया करते है तब ओहम और जब बाहर छोड़ते है तब सोऽहं ये ध्वनि उत्पन्न होती है जिसे अंदर ही महसूस किया जा सकता है ध्यान क्रिया के द्वारा ये क्रिया इतनी अद्भुत और शांतिदायी होती है जिसकी कोई सीमा नहीं है और इस ध्यान की क्रिया में यह ध्वनि धीरे धीरे इतनी स्पष्ट हो जाएगी की आप को ऐसा लगेगा की आप उसे खुद बोल रहे है या कहिये की कोई बोल रहा है और आप सुन रहे है पहले तो अब इस ध्यान को अपनी चरम पे ले जाए इसके बाद आगे सीखेंगे! एक बार जब ये आवाज़ क्लियर सुनाई देने लगेगी तब हमें जरुरत है हमारे ध्यान को और गहरा करने की जिसके लिए सब से ज्यादा आवश्यक है की हमारा मन एकाग्र हो के ध्वनि की स्पष्टता में ध्यान रखे और धीरे धीरे ओम की आवाज़ के साथ नाद बजने लगेंगे ये नाद कुछ यंत्रो की ध्वनि है जैसे की बांसुरी, सितार, तबला, मंजीरा, ढोलक, इसी तरह के और भी आवाज़ आना स्टार्ट हो जाती है जिसमे वक़्त जाता है वक़्त इसीलिए जाता है की ये आवाज़ सुनना इतना आसान नहीं है जितना की आसानी से मैंने या औरो ने लिख दिया है इन सब के पीछे एक रहस्य है ये रहस्य ही आप की उत्पत्ति और उस परम तत्व से जुड़ा हुआ है इसीलिए इस अवस्था में जब आप पहुंचे तो आप को बहुत ही उच्च कोटि का ध्यान रखना पड़ता है जो की प्रैक्टिस करने से ही आएगा और ये सब तब ही सफल होगा जब आप अपने मन को साफ़ रखे शांत रखे 


MORE