‘🌻अजपा’🌻 अजपा अर्थात् वह जप जो बिना प्रयत्न के अनायास ही होता रहता हो। योगियों का मत है कि जीवात्मा अचेतन अवस्था में अनायास ही इस जप प्रक्रिया में निरत रहता है। यह अजपा गायत्री है- सोऽहम् की ध्वनि जो श्वास प्रश्वास के साथ- साथ स्वयमेव होती रहती हैं इसी को प्रयत्नपूर्वक विधि- विधान सहित किया जाय तो वह प्रयास ‘हंस योग’ कहलाता है। हंस योग के अभ्यास का असाधारण महत्त्व है। उसे कुण्डलिनी जागरण साधना का एक अंग ही माना गया है। बिभर्ति कुण्डली शक्ति रात्मानं हं सयाँश्रिता तन्त्र सार कुण्डलिनी शक्ति आत्म क्षेत्र में हंसारूढ़ होकर विचरती है। गायत्री का वाहन हंस कहा गया है। यह पक्षी विशेष न होकर हंस योग ही समझा जाना चाहिए। यों हंस पक्षी में भी स्वच्छ धबलता- नीर क्षीर विवेक मुक्तक आहार विशेषताओं की ओर इंगित करते हुए निर्मल जीवन सत् असत् निर्धारण एवं नीति युक्त उपलब्धियों को ही अंगीकार किया जाना जैसी उत्कृष्टताओं का प्रतीत माना गया है किन्तु तात्त्विक दृष्टि से गायत्री का हंस- वाहिनी होना उसकी प्राप्ति के लिए हंस योग की सोऽहम् की साधना का निर्देश माना जाना ही उचित है। देहों देवालयः प्रोक्त जीवों नामा सदा शिवः। त्यजेद ज्ञानं निर्मालयं सोहं भावेन पूज्येत्-तंत्र देह देवालय है। इसमें जीव रूप में शिव विराजमान् है। इसकी पूजा वस्तुओं से नहीं सोऽहम् साधना से करनी चाहिए। अन्तः करण में हंस वृत्ति की स्थापना की यह साधना अजपा गायत्री भी कहीं जाती है। अजपा गायत्री का महत्त्व बताते हुए शास्त्रकार कहते है- अजपा नाम गायत्री ब्रह्मविष्णुमहेश्वरी। अजपाँ जपते यस्ताँ पुनर्जन्म न विद्यते-अग्नि पुराण अजपा गायत्री ब्रह्मा, विष्णु रुद्र की शक्तियों से परिपूर्ण है। इसका जप करने वाले का पुनर्जन्म नहीं होता अजपा नाम गायत्री योगिनाँ माक्षदायिनी। अस्याः संकल्पमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते-गोरक्षसंहिता इसका नाम ‘अजपा’ गायत्री है, जो कि योगियों के लिए मोक्ष के देने वाली है। इसके संकल्प मात्र से सर्व पापों से छुटकारा हो जाता है। अनया सद्दशी विद्या अनया सद्दशो जपः। अनया सद्दशं ज्ञानं न भूतं न भविष्यति॥- गोरक्षसंहिता इसके समान कोई विद्या है, न इसके समान कोई ज्ञान ही भूत- भविष्य काल में हो सकता है। अजपा नाम गायत्री योगिनाँ मोक्षदा सदा॥ शिव स्वरोदय अजपा गायत्री योगियों के लिए मोक्ष देने वाली है। श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवण शक्ति के सहारे अन्तः भूमिका में अनुभव करना- यही है संक्षेप में सोऽहम् साधना। वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर लहरी निकलने का यही आधार है। जंगलों में जहाँ बाँस बहुत उगे होते हैं वहाँ अक्सर बाँसुरी जैसी ध्वनियाँ सुनने को मिलती है। कारण कि बाँसों में कहीं कहीं कीड़े छेद कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेग पूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर प्रवाह सुनने को मिलता है। वृक्षों से टकरा कर जब द्रुत गति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रिया है। नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों की तरह है। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास- प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे श्वासोच्छवास लेने पड़ते हैं। प्राणायाम का मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी जितनी मन्दगति से ली जा सके लेनी चाहिए और फिर कुछ समय भीतर रोक कर धीरे धीरे उस वायु को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए। गहरी और पूरी साँस लेने से स्वभावतः नासिका छिद्रों से टकरा कर उत्पन्न होने वाला ध्वनि प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता है। इतने पर भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले कानों से उसे अनुभव किया जा सकता है। चित्त को श्वसन क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए। और भावना को इस स्तर की बनाना चाहिए कि उससे श्वास लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि प्रवाह की मन्द अनुभूति होने लगें। उसी प्रकार जब साँस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि ‘हम’ ध्वनि प्रवाह विनिसृत हो रहा है। आरम्भ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती किन्तु क्रम और प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरान्त इस प्रकार का ध्वनि प्रवाह अनुभव में आने लगता है। और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है वरन् आनन्द का अनुभव होता है। सो का तात्पर्य परमात्मा और हम का जी चेतना- समझा जाना चाहिए। निखिल विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और अंग प्रत्यंग में जीवकोष तथा नाडी तन्तु में प्रवेश करके उसको अपने संपर्क संसर्ग का लाभ प्रदान कराता है। यह अनुभूति सो शब्द की ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतरनी चाहिए। और ‘हम’ शब्द के साथ जीव भाव द्वारा इस कार्य कलेवर पर से अपना कब्जा छोड़ कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़ की जानी चाहिए। प्रकारान्तर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मनः क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की ही यह धारण है, जीव भाव अर्थात् स्वार्थवादी संकीर्णता, काम क्रोध, लोभ, मोह भरी मद मत्सरता- अपने को शरीर या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा भी दिग्भ्रान्त स्थिति का नाम ही जीव भूमिका है। इस भ्रम जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया जाय तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है। कार्य कलेवर के कण- कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीव धारणा की बेदखली यही है सोऽहम् साधना का तत्त्वज्ञान श्वास प्रश्वास क्रिया के माध्यम से- सो और हम ध्वनि के सहारे इसी भाव चेतना को जागृत किया जाता है कि अपना स्वरूप ही बदल रहा ह अब शरीर और मन पर से लोभ-मोह का वासना-तृष्णा का आधिपत्य समाप्त ही रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। शासन परिवर्तन जैसी राज्यक्रान्ति जैसी यह भाव भूमिका है जिसमें अनाधिकारी अनाचारी शासनसत्ता का तख्ता उलट कर उस स्थान पर सत्य न्याय और प्रेम संविधान वाली धर्म सत्ता का राज्याभिषेक किया जाता है। सोऽहम् साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः प्रगाढ़ करती चली जाती है और अन्तःकरण यह अनुभव करने लगता है कि अब उस पर असुरता का नियन्त्रण नहीं रहा उसका समग्र संचालन देव सत्ता द्वारा किया जा रहा है। श्वास ध्वनि ग्रहण करते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम’ की धारण में लगने चाहिए। प्रयत्न करना चाहिए कि इन शब्दों के आरम्भ में अति मन्द स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमशः प्रखरता आती चली जाय। चिन्तन का स्वरूप यह होना चाहिए कि साँस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ काय कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहें है। यह प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है, वरन् प्रत्येक अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। एक एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगों के चित्र की कल्पना करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए उसमें भगवान की सत्ता चिरस्थायी रूप से समाविष्ट हो गई। हृदय फुफ्फुस, आमाशय, आँखों ,गुर्दे जिगर, तिल्ली आदि में भगवान का प्रवेश हो गया। रक्त के साथ प्रत्येक नस नाडी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना-शासन स्थापित कर लिया। बाह्य अंगों ने पाँच ज्ञानेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना स्वीकार कर लिया। जीभ वही बोलेगी जो ईश्वरीय, प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना, चलना आदि इन्द्रियजन्य गतिविधियाँ दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन करेगी। जननेन्द्रिय का उपयोग वासना के लिए नहीं मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अनिवार्य आवश्यकता का धर्म संकट सामने आ खड़ा होने पर ही किया जाएगा हाथ-पाँव मानवोचित कर्तव्य पालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न करेंगे जो ईश्वरीय सत्ता को कलंकित करता हो। मस्तिष्क ऐसा कुछ न सोचेगा जिसे उच्च आदर्शों के प्रतिकूल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित न्याय विरुद्ध एवं अदूरदर्शी अविवेक भरा निर्णय न करेगी। चित्त में अवांछनीय एवं निकृष्ट स्तरीय आकांक्षाएँ न जमने पायेगी। अहंता का स्तर नर कीटक जैसा नहीं नर नारायण जैसा होगा। यही है वे भावनाएँ जो शरीर और मन पर भगवान के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ सिद्ध कर सकती है। यह सब उथली कल्पनाओं की तरह मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए वरन् उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि इस भाव परिवर्तन को क्रिया रूप में परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े सार्थकता उन्हीं विचारों की है जो क्रिया रूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों, सोऽहम् साधना के पूर्वार्ध में अपने कार्य कलेवर पर श्वासन क्रिया के साथ प्रविष्ट हुए महाप्राण की- परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिन्तन करना पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रह कर एक व्यावहारिक यथार्थता के-प्रत्यक्ष तथ्य के-रूप में प्रस्तुत दृष्टिगोचर होने लगें। इस साधना का उत्तरार्ध पाप निष्कासन का है। शरीर में से अवांछनीय इन्द्रिय लिप्साओं का- आलस्य प्रमाद जैसी दुष्प्रवृत्तियों का-मन से लोभ, मोह जैसी तृष्णाओं का- अन्तस्तल से जीव भावी अहन्ता का-निवारण निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनाएँ अत्यन्त प्रगाढ़ होनी चाहिए। दुर्भावनाएँ और दुष्कृतियां- निष्कृष्टतायें और दुष्टताएँ-क्षुद्रताएँ और हीनताएँ सभी निरस्त हो रही है-सभी पलायन कर रही है यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिए। उपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपरान्त जो हलकापन-जो सन्तोष-जो उल्लास स्वभावतः होता है और निरन्तर बना रहता है उसी का प्रत्यक्ष अनुभव होना ही चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि सोऽहम् साधना का उत्तरार्ध भी एक तथ्य बन गया। सोऽहम् साधना के पूर्व भाग में श्वास लेते समय सो ध्वनि के साथ जीवन सत्ता पर उस परब्रह्म परमात्मा का शासन-आधिपत्य स्थापित होने की स्वीकृति है। उत्तरार्ध में हम को-अहंता को- विसर्जित करने का भाव है। साँस निकली साथ-साथ अहम् भाव का भी निष्कासन हुआ। अहंता ही लोभ और मोह की जननी है। शरीराध्यास में जीव उसी की प्रबलता के कारण डूबता है। माया, अज्ञान, अन्धकार, बन्धन आदि की भ्रान्तियाँ एवं विपत्तियाँ इस अहंता के कारण ही उत्पन्न होती है। इसे विसर्जित कर देने पर ही भगवान का अन्तः क्षेत्र में प्रवेश करना-निवास करना सम्भव होता है। इस छोटे से मानवी अन्तःकरण में दो के निवास की गुँजाइश नहीं है। पूरी तरह एक ही रह सकता है। दोनों रहे तो लड़ते-झगड़ते रहते हैं। और अन्तर्द्वन्द्व की खींचतान चलती रहती हैं भगवान को बहिष्कृत करके पूरी तरह ‘अहमन्यता’ को प्रबल बना लिया जाय तो मनुष्य दुष्ट-दुर्बुद्धि क्रूर-कर्मों से असुर बनता है अपनी कामनाएँ-भौतिक महत्त्वाकाँक्षाएँ ऐषणाएं समाप्त करके ईश्वरीय निर्देशों पर चलने का संकल्प ही आत्म समर्पण है। यही शरणागति है। यही ब्राह्मी स्थिति है। इसे प्राप्त होते ही मनुष्य में देवत्व का उदय होता है तब ईश्वरीय अनुभूतियाँ चिन्तन में उत्कृष्टता और व्यवहार में आदर्शवादिता भर देती हैं ऐसे ही व्यक्ति महामानव ऋषि, देवता एवं अवतार के नाम से पुकारे जाते हैं। ‘सो’ में भगवान का शासन आत्म-सत्ता पर स्थापित करने और ‘हम’ में अहंता का विसर्जन करने का भाव है। प्रकारान्तर से इसे महान् परिवर्तन का आन्तरिक कायाकल्प की बीजारोपण कह सकते हैं सोऽहम् साधना का यही है भावनात्मक एवं व्यावहारिक स्वरूप ईश्वर जीव को ऊँचा उठाना चाहता है जीव ईश्वर को नीचे गिराना चाहता है अस्तु दोनों के बीच रस्साकशी चलती और खींचतान होती रहती है। न ईश्वर श्रेष्ठ जीवन क्रम देखे बिना सन्तुष्ट होता है और न अपनी न्याय-निष्ठा क्रम-व्यवस्था तथाकथित पूजा पाठ के कारण छोड़ने को तैयार होता है। वह अपनी जगह अडिग रहता है और भक्त को तरह-तरह के उलाहने देने, शिकायतें करने, लाँछन लगाने की स्थिति बनी ही रहती है। भक्त ईश्वर को अपने इशारे पर नचाना भर चाहता है उससे उचित अनुचित मनोकामनाएँ पूरी कराने की पात्रता-कुपात्रता परखने की आदत छोड़ देने का अग्रह करता रहता है। दोनों अपनी जगह पर अडिग रहें-दोनों की दिशाएँ एक दूसरे की इच्छा से प्रतिकूल बनी रहे तो फिर एकता कैसे हो सामीप्य सान्निध्य कैसे सधे? ईश्वर प्राप्ति की आशा कैसे पूर्ण हो? इस कठिनाई का समाधान 'सोऽहम्' साधना के साथ जुड़े हुए तत्त्वज्ञान में सन्निहित है। दोनों एक-दूसरे से गुँथ जाय- परस्पर विलीनीकरण हो जाय। भक्त अपने आपको अन्तःकरण आकांक्षा एवं अस्तित्व को पूरी तरह समर्पित कर दे और उसी के दिव्य संकेतों पर अपनी दिशा धाराओं का निर्धारण करे। इस स्थिति की प्रतिक्रिया द्वैत की समाप्ति और अद्वैत की प्राप्ति के रूप में होती है। जीव ने ब्रह्म को समर्पण किया है ब्रह्मा की सत्ता स्वभावतः जीवधारी में अवतरित हुई दृष्टिगोचर होने लगेगी। समर्पण एक पक्ष से आरम्भ तो होता है, पर उसकी परिणति उभयपक्षीय एकता में होती है। यह प्रेम योग का रहस्य है। यही भक्त के भगवान बनने का तत्त्वज्ञान है। ईंधन जब अग्नि को समर्पण करता है तो वह भी ईंधन न रहकर आग बन जाता है। बूँद जब समुद्र में विलीन होती है तो उसकी तुच्छता असीम विशालता में परिणत हो जाता है। नमक और पानी-दूध और चीनी जब मिलते हैं तो दोनों की पृथकता समाप्त होकर सघन एकता बनकर उभरती है। यही है वेदान्त अनुमोदित जीवन लक्ष्य की पूर्ति-परम पद की प्राप्ति। इसी स्थिति को ‘अद्वैत’ कहते हैं। शिवोऽहम्-सच्चिदानंदोऽहम्-तत्त्वमसि-अयमात्मा ब्रह्म- की अनुभूति इसी सर्वोत्कृष्ट अंतःस्थिति पर पहुँचे हुए साधक को होती है। इसी को ईश्वर प्राप्ति, आत्म साक्षात्कार एवं ब्रह्म निर्वाण आदि नामों से पूर्णता के रूप में कहा गया है।
मंगलवार, 29 मार्च 2016
‘🌻अजपा’🌻 Shabd Artha
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