"नाम" नागेश जय गुरुदेव (दीपक बापू)

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

“ध्यान क्या है!

जिन्होंने पहले नहीं देखा है पढ़ा है या बेसिक जानकारी भी नहीं है वह निचे दी हुयी मेरी लिंक को एक बार अवश्य पढ़े प्रैक्टिकली कर के देखे और बिना अनुभूति किये तो आप से मेरा परम अनुरोध है की आगे पढ़े ही नही अन्यथा मेरी बाते आप को शायद हज़म हो ही नहीं!

http://santnagesh.blogspot.in/2016/03/dhyaan.html

              उपरोक्त लिंक के उपर हमने पहले ही ध्यान को किस तरह से लगाना है इस विषय में चर्चा की हुयी है! उसके बेसिक अनुभव को भी साझा किया हुआ है! इसीलिए यहाँ अब उसके आगे लिखने की शुरुआत मैं कर रहा हूँ!  यहाँ हम ध्यान को पूरी तरह से विस्तृत तरीके से जानेंगे!
     
           ध्यान बहुत ही महत्वपूर्ण विषय है इसीलिए इसको जितना सहज और सही रूप से लिखा जाये उतना अच्छा ताकि लोगो को समझने में आसानी हो! और सही रूप में वह ध्यान लगा सके! सब से पहले तो मन को खली कीजिये ध्यान लगाने की अवस्था में आप का मन शून्य होना चाहिए! बहुत से लोग ध्यान लगाते समय पहले से ही ईश्वर की एक तस्वीर उसकी मूर्ति उसकी आकर रूप की कल्पना कर लेते है! और यही वह कारन है की वह लोग सही रूप में ईश्वर का साक्षात्कार कर ही नहीं पाते! ध्यान! ध्यान लगाते वक़्त मन में कुछ भी नहीं चलना चाहिए! मन में आने वाली सभी बातों को शून्य कर दे किसी भी वस्तु के बारे में सोचना बंद कर दे! एक भी बात आप के मन में नहीं रहने दीजिए शुरुआती तौर पे आप एक दिये की बत्ती को ही अपने दिमाग में लेके चले! ये इसीलिए ताकि आप के मन में से बाकी बातें अदृश्य हो जाये! और आप सिर्फ इसी में एकाग्रचित्त हो सके! धीरे धीरे आप की चेतना अवस्था जागृत हो जाएगी! चेतना अवस्था जागृत होने  तक में बहूत सी कठिनाईया आएँगी! ये इतना आसान नहीं है! आँखें बंद कर के शांति से बैठना और ध्यान का लगना दोनों में बहुत अंतर है! बहुत से लोग ध्यान के नाम पर कल्पना की अनुभूति करते है! और उसको ही ध्यान समझते है! जब की ऐसा होता है नहीं! ध्यान की मुद्रा में ध्यान किसी वस्तु में या किसी आकार में देना नहीं है! ध्यान शुन्य पे रखना है! हर जगह से ध्यान का हटाना और एकाग्रचित्त होने की अवस्था ही हक़ीक़त में ध्यान है! ध्यान का मानव जीवन में बहुत ही महत्व है! इसके कारन आदमी की पॉजिटिव सोच बढ़ती है! उसके भीतर औरा का (ऊर्जा) का निर्माण होता है! ध्यान से व्यक्ति में अचंभित करने वाली शक्ति का प्रसार होता है! अजीब तरीके की तेज उसके मुखमण्डल पे दिखने लगती है! उसका चेहरा शांत नज़र आने लगता है! ये सब होने के लिए ज़रूरी है! की ध्यान लगे! सिर्फ बातो में नहीं! हक़ीक़त में भी!

          ध्यान लगाते वक़्त जब आप शुन्य होना शुरू होते हो! तो सब से पहले तो शरीर हल्का पड़ने लगता है! सांस की गति धीमी लगने लगती है! और ये आभास आप का स्वयं का होता है! ये आप की अवस्था अंदर ही होती है! सांस धीमी गति से चलने के कारन आप को आप की स्वसन क्रिया में अजीब सा तेज महसूस होगा! ध्यान लगाते समय अपनी दोनों आँखों को अपने माथे की तरफ जहां बिंदी या तिलक लगाते है! उस और ले जा कर के ध्यान लगाना चाहिए इसमें दर्द होता है! परन्तु सही ढंग से यदि ध्यान लगाया जाए तो ही उसका असर होगा वर्ना सब बातें यूँ ही धरी की धरी रह जाएगी!

       ध्यान के समय जब आप सभी विचारों का त्याग कर देते है! तब आप के मस्तिष्क पटल की और देखते देखते  भीतर ही आप को ओम की ध्वनि का आभास होना शुरू होगा! फिर अलग अलग तरह के नाद यंत्रो का आभास शुरू होगा इन सभी ध्वनियों को सुनिए आप को बहुत ही सुखद अनुभव होगा! ये ध्वनि धीरे धीरे इतनी तीव्र हो जाएगी और अलग अलग से आभास कराएगी और इन सभी को चीरते हुए आप ओम की ध्वनि में लीन हो जायेंगे! सिर्फ और सिर्फ सन्नाटा सा महसूस होगा! इस क्षण यदि आप को कोई मूर्ति! या आपकी कल्पना का आभास होना शुरू हो तो तुरंत उसे मिथ्या समझ के चले क्योंकि जिस अनुभूति की हम बात कर रहे है! वह ये नहीं है! इसको पहले ही इसीलिए बता दे रहा हूँ क्योंकि लोग अक्सर इस जगह आ कर खो जाते है! यदि आप भी इस भंवर में फसे तो तुरंत हाथ में कोई वजनदार वस्तु लेके इस पर प्रहार कर दे और इसे हटा दे! या तो तुरंत उसे ० समझने लगे जैसे वह कुछ है ही नहीं! क्योंकि बहुत से लोगो को ध्यान में यही तकलीफ़ आती है! जब वह ध्यान लगाते है! तब उन्हें इन्ही सब कल्पनाओं की अनुभूति होनी शुरू हो जाती है! और वह इसके बाहर निकल ही नहीं है! ऐसे लोगो से मेरा विशेष अनुरोध है की अपने आप को सीमित न करे! और आगे बढ़ते रहिये!

         ध्यान की प्रक्रिया में जब आप चरम सिमा पर पहुंचते है तब आप को काफी सारे भजन के सार यूँ ही समझ जाते है! क्योंकि जिन पंक्तियों को संत महात्मा लिख के चले गए है उन पलो को आप ध्यान की मुद्रा में जी लेते है! ध्यान की अवस्था पे आज हम चर्चा करेंगे!

ध्यान की अवस्था

ध्यान में जो अवस्थाएं आती है उनकी बहुत सी जगह, बहुत से व्यक्तियों के द्वारा हमने देखि है! कोई २ कोई ३ कोई ४ अवस्था बताता है! परन्तु यहाँ मैं मेरे विचार से ही लिख रहा हूँ तो ये सिर्फ और सिर्फ मेरे ही शब्दों में है! क्योंकि पढ़ी लिखी बात को घुमा फिरा के लिख देना मुझे सही नहीं लगता है! अपनी  खुद की की हुयी अनुभूति से जो अनुभव प्राप्त हुआ है सिर्फ उसे ही यहाँ साँझा किया जा रहा है! ताकि लोग जितना सरलता से समझ पाये उतना अच्छा!

१) ध्यान जब लगन शुरू करते है तब सब से पहले जो फीलिंग आती है वह है सांसो में और आँखों में गर्मी की बड़ी अच्छी लगती है! गर्मी से तो वैसे हर किसी को परहेज है परन्तु जब ध्यान लगाते है तब ये गर्मी का एहसास अलग ही होता है इसमें आप की साँसे धीमी गति से चलते हुए आप के पुरे शारीर में विचरण का एहसास दिलाती है! आँखों पे वजन का एहसास होता रहता है! मस्तक(माथे) पे भी वजन आता रहता है! आँखों के निचे भारी भारी लगता रहता है! और इसी सिचुएशन में आप को अपने अंदर की आवाज़ धीमी धीमी गति से आनी शुरू हो जाती है!
२) दूसरी अवस्था में पहुंचते समय आप को जो आवाज़ धीमी धीमी गति में आ रही थी वह थोड़ा थोड़ा कर के बढ़ने लगती है जो तेज चल रही हवा की तरह ही लगती रहती है! ये हवा को ही भजन में मुरली की उपाधि दी हुयी है! ये हवा की या यूँ कहे की मुरली की आवाज़ और कुछ नहीं आप की स्वसन प्रक्रिया की आवाज़ ही है जो आप के ध्यान के कारन आप को सही से सुनाई दे रही है! इसका कारन आप को बता दो की क्यों ये ऐसा होता है! तो आप ने बांसुरी को देखा ही होगा उसमे खोखली सी नल्ली जिसमे बने छिद्रो के कारन हवा का उसमे प्रसार होते ही ध्वनि निकलने लगती है ठीक उसी प्रकार आप के अंदर जब आप के स्वसन क्रिया में हवा का प्रसार होता है! तो भी आवाज़ होती है परन्तु उसे ऐसे ही महसूस या सुना नहीं जा सकता है परन्तु ध्यान की क्रिया में हम उसको सुन सकते है!इस अवस्था में आप की स्वसन क्रिया काफी धीमी गति में चलती है परन्तु अच्छी मात्र में हवा का संचार आप के अंदर होता रहता है!

३) स्वसन की अवस्था में अपने आप को बनाए रखते हुए ध्यान स्वयं आप को ऊपर की तरफ ले जाता है जिसमे कुंडली जागृत जैसी वस्तुएं महसूस होती है! परन्तु ये तो आगे की बात है इन्हे हम बाद में समझेंगे फ़िलहाल ध्यान की ये अवस्था कुछ इस प्रकार होती है की इसमें आप अपने देह(शारीर) को तक़रीबन भूल ही जाते है! आप को अपनी उपस्थिति उसी जगह लगती है जहां आप ध्यान धरती हुए दृश्य देख रहे हो! इस सिचुएशन में आप को अपने शारीर का भान नहीं रहता है! तनिक सा भी नहीं! इस अवस्था में माथा गरम होता है! बाकि शारीर में थोड़ा ठंडापन आ गया होता है! ये तक़रीबन समाधी के जैसा ही लगता है! परन्तु ये समाधी नहीं है! इसीलिए गलत इशारों से बच्चे!
              इस सिचुएशन में आने पे आप को ध्यान के समय अजीब अजीब से चित्र दीखते है! अँधेरा प्रकाश सभी की ऐसी मिलीजुली प्रतिक्रिया होती है! की खेल देखते ही बनता है! सात सुरों साथ रंगो का ऐसा मेल शायद ही कभी खुली आँखों से देखा हो जो यहाँ देखने को मिलती है!

४) ध्यान जब इसके भी ऊपर पहुंचता है तो समाधी की दशा में पहुंच जाता है! इस अवस्था में देह तक़रीबन पूरी तरह से ठंडा पद चूका होता है! बहरी व्यक्ति के देखने पे अचेतन अवस्था ही जान पड़ती है! ये अवस्था में आप की साँसे तक़रीबन ना की तरह ही होती है! अपितु बाहरी व्यक्ति के लिए तो आपकी स्वसन क्रिया बंद ही हो गयी होती है! इस अवस्था में ध्यान लगाया हुआ व्यक्ति पहाड़ झरने आदि जगहों को देखता है! जिसमे वह खुद को कही बैठा हुआ महसूस करता है! उसे इस जगह का जहां वह हक़ीक़त में बैठा हुआ है उसका तनिक भी विचार रहता है ही नहीं! इस अवस्था में और भी आगे जाया जाता है! यहाँ तक पहुंचना भी कोई आसान या खेल नहीं है! यहाँ तक पहुंचने का दावा बहुत से लोग करते है! परन्तु उनसे सही सही पूछा जाए तो वह भी बता नहीं पाते है! मैं इसके आगे अब लिखूंगा नहीं यहाँ तक की जो अवस्थाएं मैंने बताई है वह पूर्ण है ऐसा नहीं कह सकता हूँ क्योंकि इन अनुभव को शब्दों में बयां कर देना इतना आसान नहीं है! और मैंने वैसे भी आप के साथ सिर्फ एक छोटा सा अनुभव ही शेयर किया है!

                   इसके बारे में यदि किसी के कोई सवाल रहेंगे तो मेरे ईमेल के पते पे या तो टिप्पणी में आप कर सकते है! जिन्हे भी इन सभी का अनुभव करना होगा या करना चाहते होंगे वह भी हमसे संपर्क कर सकते है!

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सोमवार, 25 अप्रैल 2016

थोड़ी सी ज्ञान की बात भाग २

थोड़ी सी ज्ञान की बात भाग २



!!! मेरे विचार !!!

          मेरे विचार ये मेरे ही है किसी  और के नहीं और इसके साथ में किसी  सहमत होना उनकी प्रगति करेगी उनका भविष्य सुधारेगी!

          मेरा काम लोगो को सही वस्तु देना ही नहीं अपितु उनको सही परिवर्तन में लाना और उनको सही मार्ग देना भी है! बीते दिनांक २४/०४/२०१६ को एक सत्संग का आयोजन किया था जिसमे गुरु के पद की गरिमा गुरु का महत्व और गुरु का सही कर्तव्य इसके बारे में चर्चा होनी थी चर्चा अपने हिसाब से हुयी भी मगर बहुत खेद हुआ ये देख के कुछ लोग अपने गुरु के पद को सही सम्मान न देते हुए सिर्फ अपने परिवार का अपने बैंक बैलेंस का और अपने स्वयं के भविष्य को ही उज्वल करना चाहते है! मैंने देखा की जो उनके शरणागति lele उसके पास से पैसा निकालने की कला ही उन्हें सही तरीके से आती है कुछ ज़रुरी श्लोक उनके सार कुछ रोमांच भरी वाणी के सहारे वह लोग लोगो को धोखे में रखते है और अपना काम निकालते रहते है!

          मैंने गुरु के बारे में जो कुछ भी लिखना था या बोलना था वह मैंने पहले भी लिखा हुआ ही है परन्तु पूर्ण तो उसको मैं खुद नहीं बोल सकता हूँ! गुरु की mahima का बखान करना या उसको शब्दों में बयान कर देना इतना आसान है क्या! स्वामी विवेकानन्द जी के बारे में एक बात सुनी थी की जब वह इंग्लैंड के एक सेमिनार में गए थे तो एक (.) बिंदु के ऊपर उन्होंने बहुत ही लम्बा विचार व्यक्त कर दिया था! अब आप सोचिए की जिस देश में ऐसे विद्वान हुए है जिन्होंने ऐसी ऐसी बातें कर दी है उस देश में गुरु जैसे महान शख्सियत पे बोलना मतलब सूरज को दिया दिखने जैसी बात ही है! यदि मैं गलत बोल या लिख रहा हूँ तो कृपया मुझे बताईये!

           गुरु की महिमा या गुरु का सम्मान कभी काम नहीं हो सकता है गुरु की जरूरत कभी भी खत्म नहीं हो सकती है पर गुरु का काम है क्या! इस बात से भी हम अंजान नहीं है और जो अंजान है उनके लिए यहाँ लिंक दे रहा हूँ कृपया कर के एक बार देख लीजिएगा 


          इन सभी विषय पे पहले ही तक़रीबन मैं लिख चूका हूँ इससे अधिक लिख पाना भी स्वीकार करने योग्य है मैं यह नहीं कह सकता हूँ की जितना मैंने लिख दिया या बोल दिया वह पूरा है परन्तु मैं यह बोल सकता हूँ की जो कुछ मैंने यहाँ लिखा है वह भी है! उसको कोई गलत नहीं ठहरा सकता है! वैसे ये बोलने की बात है आज कल का समाज बहुत ही भ्रष्ट हो चूका है लोग अपनी कुर्सी बचाने के लिए अपने आप को कहा से कहा ले जाते है ये बोलने की बात है नहीं! मैं सिर्फ इतना जनता हूँ की गुरु का बालक होना गुरु पद पे बैठना कोई छोटी मोटी बात नहीं है इनकी गरिमा होती है इन पद का सम्मान है और इन्हे दूषित करने का हक़ इस दुनिया में किसी को नहीं है!  सिर्फ मुँह से बोल देना की मुझे गुरु के खिलाफ सुनना पसंद नहीं है गुरुद्रोह  पसंद नहीं है काफी नहीं होता है गुरु के प्रति तुम्हारा प्रेम तुम्हारा सम्मान दिखना ही चाहिए वर्ना आप की बातो को लोग यही समझेंगे की आपने सिर्फ और सिर्फ अच्छी बातो का अनुसरण नहीं चिंतन नहीं सिर्फ रट्टा मारा है एक तोते की तरह और सिर्फ चंद रुपयों के लिए गुरु की महिमा का अपमान किया है! गुरु होना गुरु के पद पे होना इसका मतलब जानते है आप जो गुरु बन के बैठ गए है सिर्फ और सिर्फ आप पैसा कामना जानते है! लोगो को भरोसे में लेके उनके भरोसे के साथ खेलना जानते है! और कुछ नहीं!
         गुरु पद पे आने के बाद आप ने सब कुछ पा लिया ये सोचना गलत है! क्योंकि गुरु पद कोई आराम करने की जगह नहीं है अपितु आप एक मिशन से जुड़ गए है ऐसा समझना चाहिए!!   गुरु की गरिमा बनाए रखने के लिए आप अपने पास आये व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन ला-कर के उसे मोक्ष का सही अर्थ समझाना और उसे परम शांति की अनुभूति जो वह स्वयं कर सके और दूसरों को भी करा सके ऐसा बनना होता है! परन्तु जो गुरु सही अर्थ में इन बातो के बारे में जानते है वह भी ऐसा नहीं करते है! क्योंकि वह भय में रहते है की ये हमारी जगह न लेले!  अरे भाई किस बात का भ्रम है आप को किस बात का भय है यदि वह भी आप की तरह लोगो को सही राह दिखायेगा तो आप को भय होना ही नहीं चाहिए यदि आप सही मायने में जानकार और और गुरु है!  और यदि आप सिर्फ कमाने के लिए ही बैठे है तो यह भय आप को अवश्य सताएगा ही की कही इसने भी मेरे जैसा कमाना चालू कर दिया तो! कही इसके भी शिष्य होने न लगे कही ये मेरे से ज्यादा आगे न बढ़ जाए ये सब दर अाज कल के गुरु को बहुत सताने लगा है क्योंकि सही मायने में वह गुरु है ही नहीं!

          गुरु का काम भीड़ जमा करना नहीं है! और आखिर भीड़ जमा करनी भी क्यों है तो लोगो के पास बड़ा अजीब सा जवाब होता है! की वस्तु पत्र को देख के देने के लिए होती है! वर्ना वह गलत इस्तेमाल करेगा! अच्छा और इस वस्तु के बारे में यही लोग ऐसा भी बोलते है की जिसको वस्तु मिल गयी वह चुप हो जाता है उसमे परिवर्तन आ जाता है वह परम तत्व को पा लेता है उसको सभी मैं भगवान की या कहे की ईश्वर की अनुभूति होती है मेरे भाई जब तुम्हारी बात सही है तो तुम्हे पात्र कुपात्र की बात का भय क्यों सताता है   और यदि सताता है तो  क्या तुम्हे तुम्हारी ही बातो में विश्वास नहीं है!

          पात्र कैसा भी हो यदि वह तुम्हारे पास आया है तो उसको वस्तु मिलनी ही चाहिए अगर उसका वर्तन सही नहीं है तो उसको सही करो जैसा की मैंने पहले ही कहा था की गुरु को अपने चेले के प्रति एक मिशन समझ के ही कार्य को करना चाहिए और समय से जितना जल्दी हो सके उतना जल्दी पूरा करना चाहिए परन्तु ऐसा कोई नहीं करता है सभी कमाने खाने के हिसाब से ही चलते रहते है और हर हफ्ते या महीने में बुला के उसको प्रवचन दे के उसे उसमे कमी है ऐसा बोल के दिए हुए मंत्रो को ही स्मरण करने के लिए कहते रहते है! जब की दिल पे हाथ रख के देखे तो वह भी जानते है और आप भी जानते है की ये सब गलत है! किसी पाठशाला में यदि आप का बच्चा पढ़ नहीं पा रहा है बार बार अनुत्तीर्ण ही हो रहा है तो या तो स्कूल वाले या तो आप स्वयं उस जगह को बदल देते है देखने वाली बात यह होती है की १०० की कक्षा में ८० तो अनुत्तीर्ण हो रहे है इसमें विद्यार्थी की नहीं अध्यापक की गलती है ये सीधी सीधी समझने वाली ही बात है! आप इस मामले में तो इस कदम को उठा लेते है! पर आध्यात्मिक ज्ञान करने वाले गुरु के खिलाफ आप की आवाज़ दब जाती है और सही जानते हुए  भी आप की आवाज़ नहीं निकलती है क्योंकि ऐसे लोग होते ही बड़े चालू है वह बहुत से बातों में आप को दबा के ही रखते है! गुरु का अर्थ बंधन नहीं होता है गुरु का अर्थ मुक्ति होता है और यही होना चाहिए जो गुरु आप को बंधन में ही रखे आप को सिर्फ और सिर्फ नीचे ही रहने का सिखाये वह गुरु सही मायने में गुरु कैसे हो सकता है! गुरु तो सभी इक्षाओं से परे होता है! वह अपने पास आने वाले को सम दृष्टि से ही देखता है उसके सही गलत में फर्क को देख के सब से पहले गलत को सही करता है और सभी को उनके सही रास्ते पे लाता है!

          अभी कुछ टाइम पहले हुए सत्संग में एक सज्जन पुरुष ने थोड़ा आपा खो दिया और एक व्यक्ति से कहा की आप की बोलने की लायकी नहीं है आप को वाणी की खबर नहीं पड़ती है! अब मैं ये सोच रहा हूँ की व्यक्ति तो आपके पास कुछ सिखने ही आया था तो उसकी लायकात या नालायकात का पता आप ने क्या हिसाब से लगाया! आखिर ऐसी कौन सी वाणी थी जो आप ने समझ ली और वह नहीं समझ पा रहा है! आप अगर समझते है वाणी को, तत्व को, आत्मज्ञान आप में भरा हुआ है तो क्या हिसाब से आप ने त्रुटि निकाली! वाणी समझने में ऐसी कौन सी महारथ हासिल करनी है ज़रा मुझे भी तो समझे! जो आप के आगे पीछे घूम रहा है समझने के लिए तो  वह तो यही सोच के चल रहा है की उसको आप से सिखने मिलेगा इसका मतलब की वह सच को मान रहा है की उसे इस वाणी का मर्म नहीं समझा है और वह समझना चाहता है! मेरे भाई जिसने पहले ही आप को बता दिया है सब के सामने स्वीकार किया है की मैं इस मामले में अज्ञानी हूँ मुझे सिखाओ ऐसे व्यक्ति को भरी सभा में टोक कर अपमानित करने का हक़ आप को किसने दिया और किसी ने दिया हो या न दिया हो पर आपने इस वाणी का प्रयोग कर के क्या साबित करना चाहा की आप समझदार हो! ऐसे लोगो से मेरा यही पूछना है जो दूसरों को अज्ञानी समझते है क्या वह मुझे समझाएंगे की आध्यात्मिक मार्ग पे चलने वाला व्यक्ति अज्ञानी और आप सर्व-ज्ञाता कैसे!
 
           खैर ये बाते ये जज्बात कुछ ऐसे है की जिन्हे बयां नहीं किया जा सकता है! "सब अपनी अपनी  मस्ती में मस्त है सत्तार" मगर तुम्हारी मस्ती तुम्हारे तक  ही रखो न भाई! दूसरों को क्यों गुमराह कर रहे हो!!!


          लोगो को अपने आप को बदलना चाहिए सच सुनाने और सुनने के काबिल बनना चाहिए! लोगो को लगता है की ये व्यक्ति समझदार है ज्ञानी है तो चुप ही रहेगा कुछ बोलेगा नहीं! क्योंकि ज्ञानियों की निशानी है की वह बेवकूफ़ो के बिच में चुप ही रहते है! और इसी बात का फायदा उठा के बहुत से लोग दुनिया को बेवक़ूफ़ बनाते रहते है!   थोड़ा दिमाग पे जोर डालो! कितनी वाणी में भी बोला गया है! कई सारे आदर्श व्यक्ति के वचन में भी सुनने को मिला है! की "जुर्म करना तो गुनाह है परन्तु जुर्म सहना भी गुनाह ही है! और जुर्म होते हुए देख के चुप रहना तो और भी बड़ा जुर्म है!"  यदि तुम काबिल हो तो जुर्म को रोको काबिल नहीं हो तो काबिल बनो और दोनों में से कुछ भी नहीं हो  पा रहा है! तो किसी काबिल की खोज करो! किसी महान व्यक्ति ने कहा था! जीवन गति का नाम है! "दौड़ो या तो फिर चलो, या रैंगो, या घसीटो अपने  आप को परन्तु रुको नहीं!"रुकना ज़िन्दगी नहीं! चलना ज़िन्दगी है!" तो क्या हिसाब से आप ने सोचा की जिसको ज्ञान है! जिसको समझ है वह आप की बकवास सुनते जायेगा कुछ नहीं बोलेगा!

           ये सब आप की गलत फहमी भर है बस हक़ीक़त से आप का सामना हुआ  नहीं है इसीलिए आप की दूकान धड़ल्ले से चल रही है! और कुछ अंधभक्तो के कारन आप की छवि को हवा भी मिल रही है! मैं ये नहीं कहता हूँ की सभी गुरुजन ख़राब है या अज्ञानी है! या मुझे ज्यादा ज्ञान है! नहीं नहीं बिलकुल नहीं मगर हर एक का लेवल है! सभी गुरुजन की एक विशेषता है!सभी अपने हिसाब से बहुत कुछ जानते है! परन्तु आप को मोक्ष दिलाना ये उनके ही हाथ में है! यह जरुरी नहीं! जो व्यक्ति खुद ५ २५ के चक्कर में पड़ा है! वह आप को मुक्ति कैसे दिलाएगा! और मुक्ति आप को चाहिए किस बात में! ध्यान रखिये यहाँ जो मैं लिखने जा रहा हूँ अब वह बहुत से लोगो को बुरी भी लगेगी परन्तु है सच!

         किस प्रकार की मुक्ति को आप चाहते है! मुक्ति है क्या! क्या कभी किसी से पूछा है! या मन में जो धारणा बिठाई है! की ८४ का फेरा छूट जाना! स्वर्ग या फलाना धाम का मिल जाना ही मुक्ति है! आखिर मुक्ति है क्या! और दिलाने वाला है कौन ये वेषभूषा बन गयी है! श्रृंगार कर लिया है! गेरुआ पहन लिया, फोटो के आगे पीछे चमत्कारिक  ढंग वाली आकृति तैयार कर ली तो बाबा बन गए! और इनको सर्टिफिकेट भी मिल गया की ये लोग मोक्ष दिलाते है! मुक्ति का सही मतलब क्या होता है! ये जानना बहुत जरुरी है!

    सब से पहले तो एकदम सीधा सीधा हिसाब है की आप अपना सब कुछ सामने वाले के हाथ में दे कर के अपनी सभी जिम्मेदारिओं को भूल कर भगवान के स्मरण में ध्यान लगा के या समाधी लगा के इस संसार को त्याग देना या संसार से विमुख हो के गेरुआ धारण कर लेना हर वक़्त हरी को भजते रहना! (ऐसा दिखाना!) ये मुक्ति नहीं है! मुक्ति की क्या गारंटी है! जीते जी आप सभी के दिल में अपनी एक % की जगह बना नहीं पा रहे है! और मृत्यु के पश्चात आप को मुक्ति चाहिए!!! वाह क्या बात है! ये तो वही बात हुयी की ज़िदगी भर आड़े टेढ़े काम करो! फिर गंगा में जा कर नहा लो फिर तो मशीन दोबारा नयी हो गयी ऐसा लगता है!  मगर दिल पे हाथ रखिये क्या ये सही बात है! नहीं है! इस भू लोक को मृत्यु लोक, कर्म लोक, आदि कहा गया है! जो यहाँ करना है वह यही भरना है! ऐसा मेरा सोचना है इन-फैक्ट भरता भी है! बहुत सारे केसेस में हम इन बातो को देख सकते है! प्रायश्चित के नाम पर भगवान को भजना मिलने वाली सजा को कम नहीं करता है! बल्कि ये  कुछ ऐसा ही है की आप ने मिर्ची के ऊपर गुड की ढेली  खा ली हो ! गूड खाने से मिर्ची की तीखेपन में गिरावट नहीं आती है परन्तु उसके तीखेपन के  साथ लड़ने की हमारी क्षमता बढ़ जाती है! इसीलिए जिन कर्मो को किया है! उससे छुटकारा नहीं है! इतना तो ध्यान में रखिये! गीता में लिखा है! "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"
मतलब कर्म करते चलो और फल की चिंता मत करो उसे उसके ऊपर छोड़ दो! सभी कर्मो का फल वह अपने हिसाब से देता है! और उसके घर में अकाउंट की चिंता आप को करनी भी नहीं है! आप तो बस ट्रांजेक्शन (कर्म) करते जाओ! यदि  आप के कर्म सही रहेंगे, आप के कर्म धर्म विकास, सम्मान, देश, के प्रति सुपुर्द होंगे तो आप को वह खुद अपने हाथ में ले-लेगा गुजराती में एक साखि है!

    "साया तू बड़ा धनि! तुझ से बड़ा न कोई! तू जेना सर हाथ रख दे! उससे बड़ा न कोई!"
     
        जैसा की मैंने ऊपर ही लिखा था की आप के कर्मो को देखते हुए वह आप को फल देता है! और कर्म के अनुसार वह आप को हाथो हाथ लेलेगा यही वस्तु इस साखी में भी दिखती है! की वह जिस के सर पे हाथ रख देता है उसके ऊपर कोई दीखता ही नहीं! अपने आप उसके सरे दुःख दर्द मीट जाते है! सभी यातनाओं से वह परे
हो जाता है!

         अंतिम चरण में लिख रहा हूँ की यदि आप को गुरु की तनिक सी भी समझ मेरे इस लेख से पड़ी होगी तो ये मेरा सौभाग्य होगा! यदि कुछ समझने में तकलीफ हो मुझे अवश्य संपर्क करे! क्योंकि आप का लिया हुआ एक भी गलत फैसला आप को आजीवन रुलाएगा! आप हँसी के पात्र बन के रह जाओगे! गले की फांस बन के रह जाएगी! और आप स्ट्रेस के कारन अपने साथ साथ अपने परिवार का भी नुकसान कर बैठोगे!


मैंने शुरुआत में ही लिखा है की ये मेरे विचार है! और ये किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं है! यदि ये विचार आप के जीवन में ख़ुशी ला सकते है! तो अच्छी बात है! वर्ना इन्हे मानना या नहीं मानना पूरी तरह से आप पे निर्भर करता है! मुझे सिर्फ सच पसंद आता है! कम से कम इन बातो में मुझे झूठ बर्दाश्त नहीं है!


जय गुरुदेव
नागेश शर्मा



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SAWAL PRASHNA QUESTION

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

कुछ मूलभूत तत्वों की जानकारी

कुछ मूलभूत तत्वों की जानकारी

                  व्यक्ति बहुत सी बातों में अपने अपने हिसाब से जानकारी रखता है और उसका खुद का एक मत रहता ही है! कोई भी व्यक्ति अपने हिसाब से किसी भी टॉपिक(विषय) के ऊपर एक हद तक कुछ न कुछ बोल ही देता है बिना सोचे समझे बिना उसके सत्य को जाने और ये सब से बड़ी तकलीफ़ वाली वस्तु होती है! क्योंकि बिना सोचे समझे एक बेसिक फंडामेंटल को पकड़ के किसी के बारे में बोलना अधूरा ज्ञान दर्शाता है और ये बात सभी को पता है की अधूरा ज्ञान अक्सर धोखा ही देता है! जिसे जो भी पता है वह उसे लोगो के समक्ष रखने का पूरा अधिकार है इसके लिए मैं मना नहीं कर रहा हु परन्तु कोई भी वस्तु किसी के सामने रखने के पहले उसे बोल दीजिए सत्य को स्वीकार कीजिये की आप को जितना पता है आप उतना बता रहे है यदि ये उसके भी पर है तो कृपा कर के मुझे मार्ग दिखाइएगा और मेरी ग़लती को सुधारने का मौका दीजिए गा इस तरह से अपने आप को श्रोता के समक्ष  सही ढंग से रख पाएंगे और श्रोता भी आप को पहले सुनेंगे वर्ना क्या होता है की आज की तारीख में हर व्यक्ति अपने आप को पूरा मानता है और किसी को भी बोलने का मौका देना नहीं चाहता है और अंधेरे में ही पड़ा रहता है! आप उसे अगर बाहर निकालना चाहते है तो पहले आपको उसके मन को अपने आप में उतारना होगा फिर उसके साथ में बात करनी होगी!


         मनुष्य जीवन में बेसिक बातें अधिकतर तो जानता ही है! और अगर नहीं जानता है तो हम यहाँ कुछ टूक में लिखने का प्रयास कर रहे है!(सुझाव आमंत्रित है)
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                         मनुष्य पांच तत्वों से बना है ये तत्व है जिन्हे अलग अलग ढंग से कहा जाता है मुझे जितना पता है उतने तरीके से मैं यहाँ लिख रहा हूँ

१) जल, अग्नि, वायु, धरती और आकाश
२) जल, अगन, पवन, समीर और क्षित
३) पनि, तेज, हवा, पृथ्वी और गगन

              इन पांच तत्वों की पच्चीस प्रकृति है आपने बहुत से भजन में सुना भी होगा पांच तत्व पच्चीस प्रकृति, जो की निम्नलिखित है


१) जल तत्व की प्रकृति
  • खून/लोही
  • वीर्य/शुक्राणु
  • पिशाब/मूत्र 
  • परसेवा/ भाव
  • प्यार/लाड
२) अग्नि तत्व की प्रकृति 
  • आलस  
  • क्रांति 
  • क्षुधा
  • तृष्णा 
  • निंद्रा 
३) वायु तत्व की प्रकृति 
  • आकुंचन 
  • चलन 
  • वलन 
  • धावन 
  • प्रसारण
४) धरती तत्व की प्रकृति 
  • हड्डिया 
  • मांस 
  • नाड़ी/नश/नब्ज
  • चमड़ी
  • रोये/शारीर के उपर के बाल 
५) आकाश तत्व की प्रकृति
  • भय
  • मोह 
  • काम 
  • क्रोध 
  • शोक 


                ये तो हुए ५ तत्वों की पच्चीस प्रकृति इनके अलावा सर्व प्रथम आते है तीन गुण ये तीन गुण  है 
                              रजो गुण 
                                              सत्व गुण 
                                                                तमो गुण 

                         इन्हे दूसरी तरह से भी कहा जाता है
                             १) रजगुण                   २) तमगुण                   ३) सतगुण 


        चाहे कैसे भी कहे बात यही है 

१) रजो गुण/रजगुण
                            राग और द्वेष क्रोध इस गुण  के अंतर्गत आता है हर व्यक्ति में इसकी उपलब्धि है ही 

२) सत्व गुण/सतगुण
                            सुख और ज्ञान की अनुभूति इसी गुण के कारन होती है हर व्यक्ति में ये भी होता है ही!

३) तमो गुण/तमगुण
                           यह गुण भेद मोह उत्पन्न करता है और बुद्धि को अविवेकी जैसा कर देता है यह समय  भी बहुत से व्यक्ति ने महसूस किया ही होगा 


                                  उपरोक्त तीनों ही गुण हर व्यक्ति प्राणी में देखने मिलते है ही हम यहाँ पे मनुष्य को लेकर ही चर्चा कर रहे है इसीलिए फ़िलहाल सिर्फ मनुष्य की बातों को लेकर ही हम अपनी बातों को आगे बढ़ाएंगे!

                                    व्यक्ति चाहे कोई भी हो इन्ही पांच तत्व, तीन गुण, और पच्चीस प्रकृति का ही मिला-जुला स्वरूप होता है! और ये सभी वस्तु हर एक में निहित ही है! सब से पहले तो ये गाँठ मार लो की इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति समझदार हो या पागल हो पर समय के अनुसार अपनी उम्र में आते ही वह इन सभी दोषो में घिरता है ही कोई भी बाकत रहता नहीं मतलब बचता है ही नहीं! तो यदि कोई कहता है की वह ब्रह्मचारी है! सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र है! उसे कोई मोह नहीं है! लोभ नहीं है! कोई नशा नहीं है तो वह व्यक्ति झूठ ही बोल रहा है! क्योंकि इस संसार में यदि आप ने जन्मा लिया है तो ये तीन गुण और २५ प्रकृति आप को मिली ही है और ये सभी चीज़े आप के साथ होनी ही है इसीलिए आप इनसे बच नहीं सकते है!

                    अब आप सोच रहे होंगे की अगर बच नहीं सकते है तो कैसे आगे चला जाये! तो इसका जवाब है!

                    पहले तो ये समझ के चलिए की हर वस्तु की हर गुण की विशेषताएँ है और उसकी एक हद है, दायरा है उस दायरे में रह के और उसका सही से इस्तेमाल कर के ही हम आगे बढे तो ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है! हर व्यक्ति में इन सबका होना जरुरी है इन्हे प्रकृति कहा जाता है क्योकि ये सभी जानते है प्रकृति बलशाली है और प्रकृति अपने आप में बदलती है कोई जबरदस्ती/जानबूझकर इसे बदलने की कोशिश करता है तो कोप का सामना करना पड़ता है उसे! ठीक उसी प्रकार कुछ मामलो में क्रोध! कुछ में काम! कुछ में मोह! कुछ में लोभ; इन सभी की जरुरत पड़ती है ही! ये  सभी बाते थोड़ी अटपटी लगती है लोग सोचते है देखो ये क्या कह रहा है भरी सभा में किस तरह से बात कर रहा है परन्तु शब्दों की मर्यादा और सत्य को अपनाते हुए यदि देखा जाये तो ये बाते ही सच है और इन्हे हम अपने अंदर मानते है जाहिर में नहीं!

              पहले तो व्यक्ति को चाहिए की सत्य को स्वीकार करे, व्यक्ति में सत्य को स्वीकार करने की ताकत होनी चाहिए! हर चीज़ का अपना महत्व होता है अपनी विशेषता होती है! अपनी मर्यादा होती है! जैसे समझने के लिए लिख रहा हूँ की यदि आप में "काम" (रतिक्रिया) का गुण  हो ही नही या सभी इसका त्याग कर दे तो क्या दुनिया आगे बढ़ेगी नहीं बिलकुल नहीं बढ़ेगी यानि की ये तो होना ही है परन्तु कितना??? जी हां कितना तो सब से पहले बात आएगी की जरुरत के हिसाब से और अपनी मर्यादा में और समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखते हुए! ये क्रिया पत्नी(अर्धांगिनी) जिसे कहते है सिर्फ उसके साथ में उसकी सहमति के हिसाब से ही होती है! और समाज, परिवार, कुल को आगे बढ़ने भर की इच्छा के हिसाब से ही होना चाहिए! इससे अधिक यदि यह बात तुम्हारे मस्तिष्क में घर करती है तो आप इसके ग़ुलाम बन रहे है और मानसिक रोगी हो रहे है और समय रहते इसका सही इलाज करा लीजिए वर्ना जैसा की मैंने पहले ही कहा था की आप कोप के भागी होंगे!

          दूसरी वस्तु आती है क्रोध तो इसका भी अपना खेल है अपने नियम है! यदि आप नियम में है मर्यादा में है तो ये आप को उठाएगी वर्ना गिराएगी! धर्म, स्त्री, देश, स्वाभिमान इन वस्तुओं में क्रोध निश्चिन्त ही आता है और आना भी चाहिए इन चीज़ो को सँभालने के लिए क्रोध की अपनी भूमिका है!  यदि इन विषयों में क्रोध नहीं आता है तो भी लोग आप को नपुंसक ही जानेंगे परन्तु अगर इन बातों के अलावा किसी भी बात में सही बात में आप को क्रोध आता है हद के बाहर आता है जिनसे आप अपनी और अपने समाज धर्म को आहत पहुंचाते है वह क्रोध किसी काम नहीं है! जिस क्रोध से किसी का भला न हो वह किसी काम का नहीं! भला होने का अर्थ यह नहीं की यह भला किसी व्यक्ति विशेष का ही हो भला सही मायने में सही तरीके से लोगो से जुड़ा होना चाहिए यदि व्यक्ति विशेष से भी जुड़ता है तो सही दिशा में होना चाहिए और ये दिशा कैसी होनी चाहिए ये समझाने की जरुरत तो आप को है नहीं! इसीलिए यदि आप सही अनुपात में है तो ठीक वर्ना समय रहते इसका सही इलाज करा लीजिए वर्ना जैसा की मैंने पहले ही कहा था की आप कोप के भागी होंगे!

          तीसरी वस्तु आती है  मोह तो ये तो ऐसी वस्तु है की इसके बिना कुछ है ही नहीं! इसकी दिशा (टारगेट) सही होना चाहिए क्योंकि हर वस्तु के मोह में पड़ के अपने आप को खो देना बेहद ही दुखदायी होता है ! यदि मोह न हो तो व्यक्ति सुधर नहीं सकता है कर्म को करता ही नहीं है! मोह के कारन ही वह बहुत से कार्य को करता है इसे इस तरह से समझ सकते है की किसी के प्रेम पड़  कर किसी मोह में फंस कर ही व्यक्ति अपने आप को उठाने का काम करता है फिर वह भोजन का मोह हो स्त्री का मोह हो पैसो का मोह हो या परमात्मा को मोह हो, मोह तो होना ही है! मोह अपनी चरम सीमा से भी उपर सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में लगे तो उसके लिए कोई बंधन रहता है नहीं! क्योंकि परमात्मा किसी भी बंधन से पर है! वहां तुम्हारा मन तन धन सब कुछ न्योछावर कर देना भी कम ही लगता है! किसी भी तरीके से सोचे तो उसके आगे कुछ दीखता नहीं है तो यहाँ पे आप की कोई भी प्रभु भक्ति को स्वीकार कर लेता है! परन्तु इनके अलावा दूसरे किसी भी बात में मोह का अधिक होना घातक ही सिद्ध होता है और वस्तु को बिगाड़ता है! इसीलिए मोह के मर्यादा को जान कर उसके हिसाब में ही चलना चाहिए!
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गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

Gujrati bhajan Lyics

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सोमवार, 11 अप्रैल 2016

Gujrati Garbha Ane Prarthna Arti

Jay Adhya Shakti

Jaya aadhya shakti,
maa jaya aadhya shakti,
Akhand brahmand nibhavyan,
Akhand brahmand nibhavyan,
padave pragatyan ma,
om jay om jay om maa jagadambe

Dwitiya bay swaroop,
Shiva shakti janoo,
maa Shiva shakti janoo,
Bramha Ganapati gaavun,
Bramha Ganapati gaavun,
har gaavun har maa,
om jay om jay om maa jagadambe

Tritiya tran swaroop,
Tribhuvan man betha,
maa tribhuvan man betha,
Traya thaki taraveni,
Traya thaki taraveni,
tun taraveni maa,
om jay om jay om maa jagadambe

Chote chatura mahalaxmi,
sacharachar vyapya,
maa sacharachar vyapya,
Char bhuja chau deesha,
Char bhuja chau deesha,
pragatya dakshina maa,
om jay om jay om maa jagadambe


Panchame pancha rushi,
Panchame goon padame,
maa panchame goon padame,
Pancha sahast tyan sohiya,
Pancha sahast tyan sohiya,
panche tatwo maa,
om jay om jay om maa jagadambe


Shasthi tun Narayani,
mahisasur maaryo,
maa mahisasur maaryo,
Nar naree na roope,
vyapa saghade maa,
om jay om jay om maa jagadambe

Saptami sapta pataal,
sandhya saveetri,
maa sandhya saveetri,
Gau ganga Gayatree,
Gau ganga Gayatree,
gauri geeta maa,
om jay om jay om maa jagadambe

Asthami astha bhooja,
aayee ananda,
maa ayee ananda,
Surinar moonivar janamya,
Surinar moonivar janamya,
Devo daityo maa,
om jay om jay om maa jagadambe

Navami navakul naag,
seve navadurga,
maa seve navadurga,
Navaratri naa poojan,
Shivratri naa arachan,
kidha nar brahma,
om jay om jay om maa jagadambe

Dashami dash avatar,
jay vijiya dashmi,
maa jay vijiya dashmi,
Rame ram ramadya,
Ravan rodyo maa,
om jay om jay om maa jagadambe

Ekadashi agiyarash,
katyayani kaamaa,
maa katyayani kaamaa,
Kaam doorga kalika,
Kaam doorga kalika,
Shyama ne raama,
om jay om jay om maa jagadambe

Barase bala roop,
Bahuchari Amba maa,
maa Bahuchari Amba maa,
Batuk Bhairava sohiye,
Batuk Bhairava sohiye,
Tara chhe tuja,
maa jay om jay om maa jagadambe

Terase tulaja roop,
tun taruni mata,
maa tun taruni mata,
Brahma Vishnu Sadashiv,
Brahma Vishnu Sadashiv,
Guna tara gata,
om jay om jay om maa jagadambe

Chaudashe chauda roop,
chandi chamunda,
maa chandi chamunda,
Bhava bhakti kain aapo,
Chaturai kain aapo,
sinha vahini maa,
maa jay om jay om maa jagadambe

Shivashakti ne aarti,
je koyee gaashe,
maa je bhaave gaashe,
Bhane shivananda swami,
Bhane shivananda swami,
sukha sampati thaassey,
har kailashe jaashe,
maa Amba dukha harashe,
om jay om jay om maa jagadambe

Eke ek swaroop,
antar nava darasho,
maa antar nava darasho,
Bhola bhoodar na bhajata,
maa Amba ne bhajata,
bhavasaagar tarasho,
om jay om jay om maa jagadambe

Bhava na janoo,
bhakti na janoo seva,
maa na janoo seva,
Mata na daas ne raakho,
Mata na daas ne raakho,
charnamrit leva,
om jay om jay om maa jagadambe





Vishvambhari Akhil Stuti

Vishvambhari akhil vishwa tani janeta,
Vidhya dhari vadanma vasajo vidhata;
Door-budhhine door kari sad-buddhi apo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Bhulo padi bhavarane bhataku Bhavani,
Suzhe nahi lagir koi disha javani;
Bhaase bhayankar vali man na utapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Aa rankne ugarava nathi koi aaro,
Janmaand chhu Janani hu grahi baal taro;
Naa shu suno Bhagawati shishu naa vilapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Maa karma janma kathni karta vicharu,
Aa shrishtima tuj vina nathi koi maru;
Kone kahu katthan yog tano balaapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Hoon kaam, krodh, madh moh thaki chhakelo,
Aadambare ati ghano madthi bakelo;
dosho thaki dushit na kari maaf paapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Naa shashtrana shravan nu paipaan pidhu,
naa mantra ke stuti katha nathi kai kidhu;
Shradhha dhari nathi karya tav naam jaapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Re re Bhavani bahu bhool thayi chhe mari,
Aa zindagi thai mane atishe akaari;
Dosho prajaali sagala tava chhaap chhapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Khaali na koi sthal chhe vina aap dharo,
Bhrahmandma anu-anu mahi vaas taro;
Shakti na maap ganava agneeta mapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Paape prapanch karva badhi vaate puro,
Khoto kharo Bhagwathi pann hoon tamaro;
Jadyandhakaar door sad-budhhi aapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Sheekhe sune Rasik Chandaj ekk chitte,
Tena thaki vividhh taap talek khachite;
Vadhe vishesh vali Amba tana prataapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Shri sad-guru sharanma rahine bhaju chhu,
Raatri dine Bhagwathi tujne bhaju chhu;
Sad-bhakt sevak tana paritaap chaapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo

Antar vishe adhik urmi thata Bhavani,
Gaun stuti tava bale namine mrugaani;
Sansaarna sakal rog samoola kapo,
He maat, keshav kahe bhakti aapo,
Maampaahi Om Bhagavathi Bhava dukha kapo




"હે મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે"


હે મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે
વાગે સે, ઢોલ વાગે સે
હે મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે

ગામ ગામનાં સોનીડા આવે સે
એ આવે સે, હુ લાવે સે
મારા માની નથણીયું લાવે સે
મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે

ગામ ગામનાં સુથારી આવે સે
એ આવે સે, હુ લાવે સે
મારી માનો બાજોઠીયો લાવે સે
મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે

ગામ ગામનાં દોશીડા આવે સે
એ આવે સે, હુ લાવે સે
મારી માની ચુંદડીયો લાવે સે
મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે

હે મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે
વાગે સે, ઢોલ વાગે સે
હે મારી મહિસાગરને આરે ઢોલ વાગે સે


"Madi Taru Kanku Kharya Lyrics"


Madi Taru Kanku Kharyu Ne Suraj Ugyo
Jag Mathe Jane Prabhuta Ae Pag Mukyo
Kanku Kharyu Ne Suraj Ugyo.

Mandir Sarjayu Ne Ghantarav Gajyo
Brahmno Chandarvo Ma Ae Ankhyuma Anjyo
Divo Thava Mandir No Chando Aavi Pugyo
Kanku Kharyu Ne Suraj Ugyo

Mavdini Kotma Tarana Moti
Janani Ni Ankhyuma Poonam Ni Jyoti
Chhadi Re Pukari Mani Moralo Tahukyo
Kanku Kharyu Ne Suraj Ugyo

Norata Na Rath Na Ghughara Bolya
Ajavali Rate Mathe Amrut Dholya
Gagan No Garbo Ma Na Charanoma Zukyo
Kanku Kharyu Ne Suraj Ugyo




"મણિયારો તે હલુ હલુ"

હાં……..મણિયારો તે મણિયારો તે,
હલુ હલુ થઈ રે વિયો રે….
મુઝા દલડાં ઉદાસીમાં હોય રે,
છેલ મુઝો, વરગાણી મણિયારો,
હે છેલ મુઝો, પરદેશી મણિયારો… મણિયારો.

હાં……..મણિયારો તે કળાયેલ મોરલો રે
કાંઈ હું રે ઢળકતી ઢેલ રે,
છેલ મુઝો, વરગાણી મણિયારો…. મણિયારો.

હાં……..મણિયારો તે મહેરામણ મીઠડો
કંઈ હું તો સમદરિયાની લહેર રે,
હેલ મુઝો, હાલારી મણિયારો… મણિયારો.

હાં……..મણિયારો જી અષાઢી મેહુલો રે
કાંઈ હું તો વાદળ કેરી વીજ રે,
હેલ મુઝો, હાલારી મણિયારો… મણિયારો.

હાં……..અણિયાળી રે ગોરી તારી આંખડી રે,
હાં રે આંજેલ એમાં મેશ રે,
હેલ મુઝો, વરણાગી મણિયારો,
હેલ મુઝો, હાલારી મણિયારો… મણિયારો.

હાં……..મણિયારો તે અડાબીડ આંબલો ને,
કાંઈ હું રે કોયલડીનો કંઠ રે,
છેલ મુઝો, હાલારી મણિયારો,
હે છેલ મુઝો, પરદેશી મણિયારો… મણિયારો.

હાં……..પનિહારીનું ઢળકતું બેડલું રે
કાંઈ હું રે, છલકતું એમાં નીર રે,
છેલ મુઝો, વરણાગી મણિયારો,
છેલ મુઝો, હાલારી મણિયારો…. મણિયારો.



"Hu Tau Gayi Ti Mele Lyrics"

Hu Tau Gai Ti Mele
Man Mali Gayu Eni Mele Mela Ma

Haiyu Hanai Ne Gayu Tanai
Joban Na Rela Ma
Mela Ma Mela Ma

Mela Ma Ankh Na Ulala
Mela Ma Zanzar Zankar
Koi Na Jane Kyare Vage
Kalajade Ankhyuno Baan

Chitadu Chagdol Maru AmTem Jhulatu Ne
Ankh Ladi Jaye Ishara Ma

Haiyu Hanai Ne Gayu Tanai
Joban Na Rela Ma
Mela Ma Mela Ma

Hu Tau Gai Ti Mele
Man Mali Gayu Eni Mele Melama




"Ma Pava Te Gadh Thi Utarya Mahakali Re"

Ma Pava Te Gadh Thi Utarya Mahakali Re
Vasavyu Champaner, Pava Vali Re

Ma Champa Te Ner Na Char Chauta Mahakali Re
Sonide Mandya Haat, Pava Vali Re
Ma, Sonido Tau Lave Jhanjhari Mahakali Re
Mari Ambe Ma Ne Kaaj, Pava Vali Re

Ma Champa Te Ner Na Char Chauta Mahakali Re
Malide Mandya Haat, Pava Vali Re
Ma, Maliido Tau Lave Phoolda Mahakali Re
Mari Kalika Ma Ne Kaaj, Pava Vali Re

Ma Champa Te Ner Na Char Chauta Mahakali Re
Doshide Mandya Haat, Pava Vali Re
Ma, Doshido Tau Lave Chundi Mahakali Re
Mari Tulaja Ma Ne Kaaj, Pava Vali Re

Ma Champa Te Ner Na Char Chauta Mahakali Re
Gandhide Mandya Haat, Pava Vali Re
Ma, Gandhido Tau Lave Kankuda Mahakali Re
Mari Bahuchar Ma Ne Kaaj, Pava Vali Re

Ma Pava Te Gadh Thi Utarya Mahakali Re
Vasavyu Champaner, Pava Vali Re
Ma Pava Te Gadh Thi Utarya Mahakali Re



"Unchi Talavadi Ni Kor"

Oonchi Talavadi Ni Kor Pani Gyata
Pani Bharata Re Joyo Sahybo

Bole Ashadhino Mor Pani Gyata
Pani Bharata Re Joyo Sahybo

Ganga Jamani Bedlu Ne Kinkhabi Indhoni
Najaru Dhali Halu Toye Lagi Najaru Koni

Vagade Gaje Murlina Shor, Pani Gyata
Pani Bharata Re Joyo Sahybo

Bhigi Bhigi Jaye Mara Sadulani Kor
Ankh Madhili Gherani
Jane Banyu Gagan Ganghor

Chhanu Na Rahe Ankhyu No Tor, Pani Gyata
Pani Bharata Re Joyo Sahybo




"Nagar Nandji Na Lal"

Nagar Nandji Na Lal, Nagar Nandji Na Lal
Raas Ramanta Mari Nathani Khovani

Kana Jadi Hoye tau Aal, Kana Jadi Hoye tau Aal
Raas Ramanta Mari Nathani Khovani..

Vrundavan Ni Kunj Gali Ma Bole Zina Mor,
Radhajini Nathani No Shamaliyo Chhe Chor..

Nagar Nandji Na Lal, Nagar Nandji Na Lal
Raas Ramanta Mari Nathani Khovani



ચરર ચરર મારું ચકડોળ
ચરર ચરર મારું ચકડોળ ચાલે,
ચાકડૂચું ચીંચીં ચાકડૂચું ચીંચીં તાલે,
આજે રોકડા ને ઉધાર કાલે. ચરર ચરર ૦
ઓ લાલ ફેંટાવાળા ! ઓ સોમાભાઇના સાળા !
ઓ કરસનકાકા કાળા ! ઓ ભૂરી બંડીવાળા !
મારું ચકડોળ કાલે, ચાકડૂચું ચીંચીં, ચાકડૂચું ચીંચીં. ચરર ચરર ૦
અધ્ધર પધ્ધર, હવામાં સધ્ધર, એનો હીંચકો હાલે,
નાનાં મોટાં, સારાં ખોટાં, બેસી અંદર મ્હાલે;
અરે બે પૈસામાં બબલો જોને આસમાનમાં ભાળે.
ચાકડૂચું ચીંચીં તાલે. ચરર ચરર ૦
ચકડોળ ચઢે, ઊંચે નીચે, જીવતર એવું ચડતું પડતું,
ઘડીમાં ઉપર… ઘડીમાં નીચે… ભાગ્ય એવું સૌનું ફરતું;
દુ:ખ ભૂલીને સુખથી ઝૂલો નસીબની ઘટમાળે,
ચાકડૂચું ચીંચીં, ચાકડૂચું ચીંચીં ચાલે,
આજે રોકડા ને ઉધાર કાલે ચરર. ચરર ચરર




ચપટી ભરી ચોખા

ચપટી ભરી ચોખા ને ઘીનો છે દીવડો
શ્રીફળની જોડ લઈએ રે….
હાલો હાલો પાવાગઢ જઈએ રે…
માને મંદિરીયે સુથારી આવે,
સુથારી આવે માના બાજોઠ લઈ આવે,
બાજોઠની જોડ લઈને રે… હાલો….
માને મંદિરીયે કસુંબી આવે,
કસુંબી આવે માની ચૂંદડી લઈ આવે,
ચૂંદડીની જોડ અમે લઈએ રે….. હાલો…
માને મંદિરીયે સોનીડો આવે,
સોનીડો આવે માના ઝાંઝર લઈ આવે,
ઝાંઝરની જોડ અમે લઈએ રે… હાલો….
માને મંદિરીયે માળીડો આવે,
માળીડો આવે, માના ગજરા લઈ આવે,
ગજરાની જોડ અમે લઈએ રે…. હાલો….
માને મંદિરીયે ઘાંચીડો આવે,
ઘાંચીડો આવે માના દીવડાં લઈ આવે,
દીવડાની જોડ અમે લઈએ રે…. હાલો….



આદ્ય શક્તિ તુજને નમુ
આદ્ય શક્તિ તુજને નમુ રે બહુચરા ગુ્ણપત લાગુ પાય
દીન જાણીને દયા કરો બહુચરા મુખે માંગુ તે થાય
આદ્યશક્તિ તુજને નમુ………
વાણી આપોને પરમેશ્વરી રે બહુચરા ગુણ તમારા ગવાય
ચોસઠ બેની મળી સામટી રે બહુચરા માનસરોવર જવાય
આદ્યશક્તિ તુજને નમુ………
સર્વે મળી કીધી સ્થાપના રે બહુચરા ધરાવ્યો બહુચર નામ
સામસામા બે ઓરડા રે બહુચરા સોનુ ખડે સો નાર
આદ્યશક્તિ તુજને નમુ………
શુંભ નિશુંભને હાથે હણ્યા બહુચરા બીજા અનેક અસુર
રક્તબીજને તમે મારીયા રે બહુચરા રક્ત ચલાવ્યા પુર
આદ્યશક્તિ તુજને નમુ………
જોવા તે મરઘા બોલાવીયા રે બહુચરા દેત્ય તણા પેટમાંય
ખડી માથે ખોડા કર્યો રે બહુચરા સ્ત્રી માથે પુરુષ
આદ્યશક્તિ તુજને નમુ………
હૈયુ નથી જોને હાલતુ યે બહુચરા કઠણ આવ્યો કાળ
ધરમ ગયો ધરણી ધસી રે બહુચરા પુણ્ય ગયું પાતાળ
કર જોડીને વિનવું રે બહુચરા વલ્લભ તારો દાસ
ચરણ પખાળ તુજને નમુ રે બહુચર પુરી આસ
આદ્યશક્તિ તુજને નમુ………



આસમાની રંગની ચૂંદડી રે
આસમાની રંગની ચૂંદડી રે, ચૂંદડી રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

ચૂંદડીમાં ચમકે ચાંદલા રે, ચાંદલા રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

નવરંગે રંગી ચૂંદડી રે, ચૂંદડી રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

ચૂંદડીમાં ચમકે હીરલા રે, હીરલા રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

શોભે મજાની ચૂંદડી રે, ચૂંદડી રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

ચૂંદડીમાં ચમકે મુખડું રે, મુખડું રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

અંગે દીપે છે ચૂંદડી રે, ચૂંદડી રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

પહેરી ફરે ફેર ફૂદડી રે, ફેર ફૂદડી રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

લહરે પવન ઊડે ચૂંદડી રે, ચૂંદડી રે, માની ચૂંદડી લહેરાય

આસમાની રંગની ચૂંદડી રે, ચૂંદડી રે, માની ચૂંદડી લહેરાય






તારા વિના શ્યામ મને એકલડું લાગે,

શ્યામ….. શ્યામ…. શ્યામ…. શ્યામ…
તારા વિના શ્યામ મને એકલડું લાગે,
રાસ રમવાને વહેલો આવજે (2)
તારા વિના શ્યામ મને એકલડું લાગે,
રાસ રમવાને વહેલો આવજે (2)
તારા વિના શ્યામ…. (2)
શરદપૂનમની રાતડી,
ચાંદની ખીલી છે ભલીભાતની (2)
તું ન આવે તો શ્યામ,
રાસ જામે ન શ્યામ,
રાસ રમવાને વહેલો આવ… આવ… આવ… શ્યામ
તારા વિના શ્યામ…. (2)
ગરબે ધુમતી ગોપીઓ,
સુની છે ગોકુળની શેરીઓ (2)
સુની સુની શેરીઓમાં,
ગોકુળની ગલીઓમાં,
રાસ રમવાને વહેલો આવ… આવ… આવ… શ્યામ.
તારા વિના શ્યામ…. (2)
અંગ અંગ રંગ છે અનંગનો,
રંગ કેમ જાય તારા સંગનો (2)
તું ન આવે તો શ્યામ,
રાસ જામે ન શ્યામ,
રાસ રમવાને વહેલો આવ… આવ… આવ… શ્યામ.
તારા વિના શ્યામ…. (2)
શ્યામ….. શ્યામ…. શ્યામ…. શ્યામ…





ઢોલીડા ઢોલ તું ધીમે વગાડ

ઢોલીડા ઢોલ તું ધીમે વગાડ ના, ધીમે વગાડ ના
રઢિયાળી રાતડીનો જોજે રંગ જાય ના, જોજે રંગ જાય ના
ધ્રૂજે ના ધરતી તો રમઝટ કહેવાય ના, રમઝટ કહેવાય ના
રઢિયાળી રાતડીનો જોજે રંગ જાય ના, જોજે રંગ જાય ના
પૂનમની રાતડી ને આંખડી ઘેરાય ના, આંખડી ઘેરાય ના
રઢિયાળી રાતડીનો જોજે રંગ જાય ના, જોજે રંગ જાય ના
હો….ચમકતી ચાલ અને ઘૂઘરી ઘમકાર
હો….નૂપુરના નાદ સાથે તાળીઓના તાલ
ગરબે ઘૂમતા માંને કોઈથી પહોંચાયના, કોઈથી પહોંચાય ના
રઢિયાળી રાતડીનો જોજે રંગ જાય ના, જોજે રંગ જાય ના
હો….વાંકડિયા વાળ અને ટીલડી લલાટ
હો….મોગરાની વેણીમાં શોભે ગુલાબ
નીરખી નીરખીને મારું મનડું ધરાય ના, મનડું ધરાય ના
રઢિયાળી રાતડીનો જોજે રંગ જાય ના, જોજે રંગ જાય ના
હો….સોળે શણગાર સજી, રૂપનો અંબાર બની
હો….પ્રેમનું આંજણ આંજી, આવી છે માડી મારી
આછી આછી ઓઢણીમાં રૂપ માંનુ માય ના, તેજ માંનુ માય ના
રઢિયાળી રાતડીનો જોજે રંગ જાય ના, જોજે રંગ જાય ના
ઢોલીડા ઢોલ તું ધીમે વગાડ ના, ધીમે વગાડ ના
રઢિયાળી રાતડીનો જોજે રંગ જાય ના, જોજે રંગ જાય ના


Saint Nagesh Sharma  સંત નાગેશ    संत नागेश 

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

थोड़ी सी ज्ञान की बाते भाग -१

थोड़ी सी ज्ञान की बाते भाग -१ 


          यहाँ तक पहुंचने वाले जो भी है, जो भी इन वाक्यों को पढ़ रहे है, सुन रहे है या समझ रहे है जाहिर है की वह लोग ज्ञानी ही है और अधिक ज्ञान के चाहत ने उन्हें यहाँ तक पहुंचाया है! इसीलिए मैं अपने हिसाब से उनका जो भी भला कर पाउँगा वह अवश्य करूँगा!

          हम अक्सर देखते है की व्यक्ति अपने आप को किसी-न-किसी तरह की उलझन में डाल ही देता है, फिर ये उसकी स्वयं की इच्छा हो या न हो!  ये सब अक्सर अज्ञानता-वश और कभी कभी क्रोध में लिए हुए या अत्यधिक उल्हास में लिए हुए निर्णय के कारन ही अक्सर होता है! आज हम जीवन में जीने की कुछ छोटी छोटी बातो पे ध्यान देंगे और अपने आप को सही वर्तन में परिवर्तित करने की कोशिश करेंगे!

          व्यक्ति के जीवन में सब से महत्वपूर्ण जो वस्तु है जिसके कारन उसे मान, सम्मान, अपमान, ये सब मिलता है वह है उसका व्यवहार और अपने व्यवहार के फलस्वरूप ही अपने कर्मो को बांधता है और मुक्त भी होता है! इसीलिए सबसे प्रथम यदि हमें कोई वस्तु सीखने लायक है तो वह है व्यवहार! व्यक्ति को अपने हिसाब से समझने के लिए बुद्धि मिली होती है परन्तु ज्यादातर मानव दूसरे झंझटों में फंस के बुद्धि का पतन कर लेता है और जो उसके लिए सही है उन सब को दूर कर देता है, वह यही सोचता है की सब चलता है या इतना तो चल ही सकता है! इसीलिए आज हम उन बातो पे रौशनी डालेंगे जो हमारे रोज़मर्रा की जीवन-यापन में दिनचर्या में आती ही है और हम उसकी रुझान में आ के अपना पतन कर लेते है या पतन की तरफ मूड जाते है!

          गुजराती में एक कविता की पंक्ति है जिसको मैंने बहुत से विद्वानों के सामने भी रख चुका हूँ परन्तु जानते हुए भी किसी ने मुझे उस वाक्य को सार में बताया नहीं ना ही तो इसके विषय में कोई चर्चा की! आगे पंक्ति लिख रहा हूँ!

 "हूँ बोलू पछि, मुख खोलू पछि, प्रथम मने आचरण आपजे!"

यह सिर्फ एक लाइन है उस कविता की जिसको यदि समझने जाए तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं लगती है सिंपल सी साधारण सी लाइन है सीधी सीधी बात लिखी है की बोलने के पहले मुझ में वह वस्तु दिखनी चाहिए मेरा व्यवहार भी वैसा ही रहना चाहिए बस!!!????    अब दोबारा उस लाइन को पढ़िए!, क्या सही में आप ने जितना समझा जितना जाना ये उतना ही है या उससे बढ़ कर है!

          जी हाँ जवाब एकदम चकाचौंध करने वाला ही है की ये वाक्य अपने आप में बहुत बड़ा है!! सार देखने जाएंगे और इसकी गहरायी में उतरेंगे तो समुद्र भी छोटा लगने लगेगा क्योंकि आज की तारीख में समुद्र पार करना आसान हो चुका है परन्तु इस वाक्य को पूर्ण करना नामुमकिन! बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग कर के व्यक्ति के दोष का खुलासा यहाँ पे हो गया है! हम अक्सर देखते है प्रवचनों को देने वालो को या कोई भी सलाह देने वाले को सांत्वना देने वाले को परन्तु जब उनकी खुद की बारी आती है तो नज़ारा कुछ और ही देखने मिलता है! जीवन में अक्सर हमे अपने आप में परिवर्तन लाने चाहिए ही चाहिए वैसे भी यह एक सत्य ही है की "परिवर्तन संसार का नियम है" और जब यह नियम संसार का है तो हम भी इसी संसार में रहते है ना? तो इस नियम को पालना हमारा कर्तव्य भी है और धर्म भी!

          अपने आप को परिवर्तन करने का मतलब होता क्या है?? समय के अनुसार अपने में परिवर्तन लाना चाहिए मगर सिर्फ उन परिवर्तन को ही अपने में लाना जिनसे तुम्हारा धर्म, या प्रभु इच्छा को ठेस ना पहुंचे। जो बातें हित में नहीं है उन्हें अपनाना या करना बिलकुल गलत है! समय के अनुसार तकनीक को अपनाना अच्छी बात होती है परन्तु तकनीक का प्रयोग कर के अपने गुनाह को या किसी अपने के गुनाह को दबाना, छुपाने, किसी और व्यक्ति पे धकेलना सरासर गलत और अनीतिपूर्ण है! अनीतिपूर्ण किया हुआ व्यवहार कभी भी सार्थक नहीं हो सकता है समय उसको अपनी चपेट में लेता है ही!

          मगर फिर भी मनुष्य अपने करनी से बाज नहीं आता है और अपनी कथनी और करनी में बहुत बड़ा अंतर बनाए रखता है! आखिर ऐसा होता है क्यों! क्योंकि सब कुछ जानते समझते हुए भी उसने अपने में तबदीली(परिवर्तन) नहीं  लाया होता है! इसीलिए वह खुद तो अपने करनी का भोगी बनता है साथ साथ में अपने हितार्थियो को भी अपनी चपेट में ले लेता है! क्योंकि सभी जानते है गलत करना और गलत सहना और गलत क्रिया को देखकर उसे छुपाना भी गुनाह ही है! इसके चलते आप पाप के भागीदार हो ही जाते है!

          सबसे पहले तो हम ज्यादातर देखते है "निंदा" ये मनुष्य की आज की तारीख में सब से खतरनाक बीमारी है, और सब से बड़ी बात की इस बीमारी से कोई बचा भी नहीं है! यह बीमारी एक तरह की छूत वाली ही बीमारी पकड़ के चलिए जो फैलते जा रही है कही भी इसका कोई छोर नहीं दिख रहा है, परन्तु असत्य, अनीति, अन्याय का एक दिन अंत अवश्य होता ही है इसके लिए जरुरत होती है किसी के पहल करने की और यही पहल हमें और आप को सीखना है! सर्व-प्रथम तो "निंदा" एकदम बंद कर दीजिए! निंदा करना अत्यंत ही घोर किस्म का पाप के समान ही है यह मनुष्य को ना आगे बढ़ने देती है, ना खाने देती, है ना जीने देती है, हर तरफ से यह मनुष्य को ओछी प्रवृत्ति का ग़ुलाम बन के रख देती है! निंदा करना, निंदा सुनना दोनों ही समान है, निंदा करने वाला व्यक्ति तो हल्का होता है ही निंदा सुनने वाला व्यक्ति भी उतना ही हल्का होता है!

          एक उदाहरण के लिए रामायण की बात कह रहा हूँ की जब भरत राम को मिलने जा रहे थे वन में;, तो उन्हें भीतर ही भीतर उदासीनता खाते जा रही थी उन्हें एक भय बैठा हुआ था वह भय था राम से आँख मिलाने का भय! क्योंकि वह जानते थे की राम "व्यक्ति श्रेष्ठ" है वे किसी की निंदा सुनना पसंद नहीं करेंगे अपितु निंदा करने वाले को भी पसंद नहीं करेंगे अतः वह असमंजस में थे की कहीं भूल से मेरे मुख से माता कैकयी के विरुद्ध कुछ निकल गया तो मैं अपनी हस्ती को भी खो बैठूंगा राम के सामने!

          यह क्या था?? ये भय क्यों था?? जी हाँ ये राम के व्यवहार का असर था भरत पे जो भरत को राम के समक्ष जाने से भी रोक रहा था, ठीक उसी प्रकार हमें अपने आप को राम के अनुरुप बदलना होगा, किसी की भी निंदा सुननी या करनी बंद कर देनी होगी और जब हम ये आदत अपने में डाल देंगे तो कोई भी निंदक हमारे पास आ के किसी और की बुराई नहीं करेगा और इस तरह से आपका अपने में किया हुआ परिवर्तन दूसरे के समझ में आते देर नहीं लगेगी और एक बार जो वस्तु समझ में आ गयी तो उसे अपनाना कोई दूर नहीं होता है!

          व्यक्ति अपने आप को आगे बढ़ने की लालसा में ज्यादातर निंदा का पापी बनता है, अपने शिष्टाचार को खो देता है इसका कारन यही है की समाज में बढ़ती अराजकता उसे अपने आप को संभालने का मौका नहीं देती है और वह अपने आप को स्थापित करने के या यूँ कहिये की बहुत जल्दी स्थापित करने के चक्कर में निंदा का भागी बन जाता है!  कहा जाता है की यदि किसी बड़े व्यक्ति के पास जल्दी पहुंचना हो तो उसका जिसके साथ में बैर हो उसकी निंदा शुरू कर देनी चाहिए फिर देखिये तुरंत आप हाथोंहाथ लिए जायेंगे और उसकी बगल में बिठा दिए जायेंगे! और ये हम आज की राजनीति में भी देख रहे है! नाम नहीं लेना चाहूँगा किसी का परन्तु आज लोग बुराई को अपना कर के किसी की निंदा भर कर देने से विश्व विख्यात हो जाते है! अपना करियर बना लेते है तो आप खुद सोचिये जिस समाज में ऐसे लोग मौजूद होंगे वहा पे आपको कितनी दिक्कत आ सकती है! आखिर आप अपने आने वाली पीढ़ी को कैसा समाज दे रहे है  कौन से आदर्श प्रश्तुत कर रहे है! इसका तो कारन ढूँढना ही पड़ेगा! मगर क्या आप ने ये सोचा की वह व्यक्ति कैसे इस मुकाम पे पंहुचा तो आप समझ पाएंगे की उसे ऊपर लेके जाने वाला और कोई नहीं अपितु हम ही थे क्योंकि हम ने ही उसे निंदा करने दी है! उसके बोले हुए वक्तव्यों को सुना है और उसपे प्रतिक्रिया भी दी है और एक भीषण प्रतिक्रिया के कारन उसके बोले हुए शब्दों का महत्व बढ़ गया है जिसके चलते वह व्यक्ति प्रसिद्द हो गया है! इसीलिए सब से शुरुआत में मैंने यही कहा की निंदा करना तो हलकी बात है ही परन्तु निंदा सुनना और भी हलकी बात है! निंदा सुनने से निंदक को बल मिलता है उसे अपनी गलती का एहसास नहीं होता है! उसे ये बोध नहीं होता है की जो वो कर रहा है वह गलत है! और इस गलती को वह दोहराता रहता है!

          "ऐसे व्यक्ति को सुधारना आप का कर्तव्य नहीं है और यह कर्तव्य इसीलिए नहीं है की आप को सिर्फ अपने आप को सुधारना है" आप निंदा को मत सुनिए निंदक खुद बा खुद बंद हो जायेगा!! व्यक्ति निंदा में बरबस पड़ जाता है उसे कई बार तो पता भी नहीं चलता है की कैसे वह इस दलदल में आ गया और ऐसे दलदल से बचने के लिए जरुरी है हम व्यक्ति को पहचानना सीखे! संस्कृत में एक लाइन है

    अकामना कामेंति, कामनें परीतजयते!!

            हो सकता है कुछ स्पेलिंग मिस्टेक हो इसमें मगर मैं संधि विच्छेद कर के यहाँ लिख रहा हूँ
अ-कामना = न चाहने वाला
कामेंति = की इच्छा करना
कामनें = चाहने वाले का
परीतजयते = परित्याग

            मेरे ख्याल से अब आप तकरीबन मेरी बात समझ गए होंगे! हम अक्सर लाइफ में ऐसा ही करते है! जो हमें हक़ीक़त में चाहते है हम उनसे दूर होते है और जो हमें नहीं चाहते है जो हमें धोखे में रखते है हम उनके साथ में रहते है और उनको ही सही मानते है! और ऐसा करने वाले व्यक्ति को मुर्ख नहीं अपितु महा-मूर्ख समझना चाहिए! हम अक्सर इस तरह की बातों के कारन परेशान होते ही है! व्यक्ति में लोगो की पहचान, परख होनी ही चाहिए क्योंकि, यदि आप में किसी व्यक्ति को या वस्तु को परखने की ख़ासियत नहीं है तो आप मुर्ख बनाने वालो के लिए खुला न्यौता हो! चापलूस तरह के लोग अक्सर ऐसे लोगो के तलाश में रहते है इन्हे पहचानना मुश्किल तो है मगर नामुमकिन नहीं है! इसीलिए अपने आप को सही तरीके से पेश कीजिए और सामने वाले को अच्छी तरह से परखिये, बिना परखे कोई भी काम करना या सामने वाले के ऊपर विश्वास रख के आश्वस्त हो जाना मूर्खतापूर्ण होता है! एक कहानी है जिसे मैं यहाँ लिख रहा हूँ उदाहरण के तौर पे..
   
        "एक बहुत ही धनी व्यक्ति था उसके पास इतना धन हो गया था की वह कोई भी काम करता ही नहीं था ! दोपहर में आराम से उठता अपनी दुकानों,  खेतों खलिहानों, अनाज के भंडार पे एक नज़र डालता और रोख लेके आगे चलता बनता! धीरे धीरे समय बीतता गया और अर्जित होने वाले धन में कमी आने लगी देखते देखते हालत ये हो गयी की अब धन आना ही बंद हो गया जो कुछ पहले से पड़ा था उसमे भी दिन दोगुना रात चौगुना कमी आनी शुरू हो गयी! वह परेशान रहने लगा और सेहत भी गिरने लगी!

     उसी गाँव में एक महात्मा उन दिनों भ्रमण करने आये थे! उन्हें इस बात का पता लगा तो उन्होंने भलाई के हिसाब से उस सेठ के घर एक दौरा करने का सोचा! और पहुंच गए! वहा उन्होंने देखा और सेठ से बात करने पे पता चला की उनकी कैसी दुर्दशा हो गयी है! खेत और दुकान में आमदनी काम हो गयी है वगेरा! महात्मा में कुछ विचार किया फिर उस सेठ से कहा की कल से प्रातःकाल में सूर्य के उदय होने से पहले आप उठ जाइये और आप के खेत का विचरण कीजिये, उसके बाद खलिहानों में एक नज़र दीजिये उसके बाद दुकानों पे हर जगह महीने भर में देखिये आप को अंतर महसूस हो जायेगा!

       "मरता क्या न करता" फिर क्या बात थी जैसे ही सुबह वह भोर में खेत पे गया तो क्या देखता है की कोई मज़दूर अपने काम पे नहीं है!!! खलिहान (भंडार) पे देखा की कोई पहरेदार जग नहीं रहा है, भंडार खुले पड़े है और उसमे जानवर अनायास अपना पेट भर रहे है और अनाज ख़राब भी कर रहे है! वह वहाँ से आगे दुकानों पे गया देखा की दुकानें खुली ही नहीं है काफी समय बीतने के बाद में बाजार खुल चुका था परन्तु उसकी दुकानें वैसे की वैसे बंद ही थी! अब वह महात्मा की बात को समझ गया और नित्यक्रम की भांति अपने काम को करने लगा! ये देख के मज़दूर भी समझ गए की मालिक सही समय पे आ रहा है और यदि हमने विलम्ब किया तो अपने काम से हाथ धोना पड़ेगा और वो लोग समय पे आने लगे! भंडार के पहरेदार भी पहरेदारी सही से देने लग गए! और दुकाने भी समय पे खुलने लगी और कुछ ही दिन में उस सेठ की आमदनी पहले से भी अच्छी हो गयी परन्तु अब उसने अपने नित्यक्रम को ज्यों का त्यों रखा!"

         यहाँ व्यक्ति अपने हिसाब से अपना सार निकाल सकता है परन्तु उस मालिक के जगह पे रह के सोचा जाए तो सही बात ये है की उसने लोगो को पहचानने में गलती की यदि वह सही व्यक्ति को अपने पास काम पे रखता तो ये नौबत नहीं आती, इसका मतलब ये नहीं होता है की उसका देर तक सोना तब बनता था! जागना और निगरानी रखना आप की प्रथम जरुरत और कर्तव्य है परन्तु उसने सही चुनाव किया होता तो उसे ये दिन न देखना पड़ता! व्यक्ति को परखना बहुत जरुरी होता है यदि बिना परखे व्यक्ति का चुनाव आप उसकी चापलूसी पे कर लेंगे तो आप को आगे चल के सेठ ही की तरह नुकसान उठाना पड़ेगा !

        हम अक्सर सोचते है की हमें शांति मिले और अगर देखा जाये तो हमें शांति कभी मिलती नहीं है क्योकि मानव  इच्छा को खत्म नहीं करता है अक्सर बढाता रहता है! जैसे की शादी नहीं हो रही है, शादी हो गयी तो बच्चे की ख़्वाहिश जागती है! बच्चा हो गया तो उसकी पढ़ाई - लिखाई फिर उसकी शादी  बच्चे! अच्छा पैसा, अच्छा घर, गाड़ी जेवर एक के बाद एक डिमांड्स बढ़ती जाती है कही खत्म दीखता नहीं! और अंत में उम्र हो जाने पे वह कहा आते है इश्वर के शरण में की नहीं सच्ची शांति तो यही मिल रही है अब कोई और दुखड़ा सुनता नहीं है! तो मूर्ति के सामने आंसू बहा के अपने आप को हल्का कर लेते है! १ घंटा २ घंटा ४ घंटा जैसा जिसकी कैपेसिटी वैसा बैठ के शांति की अनुभूति को प्राप्त करता है!
 
           यहाँ पे बातो को मैंने थोड़ा जल्दबाजी में और डायरेक्ट लिख दिया है तो हो सकता है की यह एक तर्क वितर्क का  मुद्दा भी बन जाये तो उस  वस्तु को ज़रा कुछ समय के लिए दूर रखिये और सोचिये की क्या मैंने गलत लिखा है! व्यक्ति कैसे भी रस्ते पे जाये, कुछ भी करे परन्तु अंत में शरण वह इसी की लेते है और तभी ही उन्हें शांति की अनुभूति होती है. वरन शांति का मार्ग भी यही है! परन्तु एक समय के लिए इसे भी दूर कीजिये इसमें  आप को जाना है परन्तु सर के ऊपर जो दुनियादारी पाल के रखी है उसे कौन देखेगा!! देखिये सब से पहले तो एक बात क्लियर कर दू की दुनिया आप के भरोसे पे नहीं चलती है इसीलिए अपने आप को तुर्रम खान समझने की गलती तो बिलकुल मत कीजिये! एक समय की बात है "सिकंदर तब मिटटी में मिल चूका था पर माँ की ममता को कौन समझाए तो माँ चाहत कब्रिस्तान पहुंच गयी और "सिकंदर" नाम की आवाज़ लगाने लगी उसकी करुणा उसका अलाप देख के विधाता से रहा न गया और आवाज़ आई "किस सिकंदर को ढूंढ रही हो! यहाँ तो बहुत से हो गए है!"   सोचिये तनिक सोचे और समझे! बहुत से लोगो को यही धारणा होती है की उनके रहते ही सब हो रहा है वह नहीं होंगे तो दुनिया जैसे रुक ही जाएगी तो इस बात को यही रोक दे! इस सोच को यही से बदल दे क्योकि
                 "धरती राजा राम की कोई ने न पूरी आस, कयिक राणे रम गए कयिक गए निराश"
यहाँ पे आप जैसे कितने आ के चले गए पर इस धरती पे  सब कुछ चला आ रहा है और आगे भी चलता ही रहेगा! और क्या गारंटी है की आप के रहने पे आप के घर वाले अच्छा खा रहे है हो सकता है कल आप नहीं रहे तो वह और भी अच्छा जीवन व्यतीत कर सके ! देखिये होने को कुछ भी होगा परन्तु उसके विचार में अपना जीवन नष्ट कर लेना उचित नहीं है! आप अपना कर्मा करते रहिये फल की चिंता छोड़ दीजिये किये हुए कर्मो का फल अवश्य मिलता है परन्तु वह देना उसके हाथ में है आप के हाथ में नहीं! व्यक्ति अपना कर्म ज्यादातर फल को ध्यान में रख के ही करता है परन्तु हम अक्सर देखते है की वह हो नहीं पाता है! श्री कृष्णा ने गीता में कहा है

                                        !!कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
                                                   मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि!!

अब यहाँ किसी को इतना ज्ञान देने की जरुरत तो है नहीं की ये क्या लिखा है या क्या कहा है! सभी इस वाक्य को जानते है पहचानते है मानते भी है परन्तु जीवन में उतारते नहीं है! टारगेट बनाने की जो कला है मनुष्य में उसके लिए तो एक ही शब्द निकलता है "वाह" और इससे अधिक कहे भी क्या!!
    कहने का अर्थ यही  है की कर्म को करते रहिये! सही दिशा में सही व्यवहार में बस!






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मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

ભક્તિ રે કરવી એણે રાંક થઈને રહેવું પાનબાઈ

 ભક્તિ રે કરવી એણે રાંક થઈને રહેવું પાનબાઈ
 મેલવું અંતરનું અભિમાન રે,
 સતગુરુ ચરણમાં શીશ રે નમાવી
 કર જોડી લાગવું પાય રે .... ભક્તિ રે કરવી એણે
 જાતિપણું છોડીને અજાતિ થાવું ને
 કાઢવો વર્ણ વિકાર રે,
 જાતિ ને ભ્રાંતિ નહીં હરિ કેરા દેશમાં
 એવી રીતે રહેવું નિરમાણ રે ... ભક્તિ રે કરવી એણે
 પારકાનાં અવગુણ કોઈના જુએ નહીં,
 એને કહીએ હરિ કેરા દાસ રે,
 આશા ને તૃષ્ણા નહીં એકેય જેના ઉરમાં રે
 એનો દૃઢ રે કરવો વિશ્વાસ રે ... ભક્તિ રે કરવી એણે
 ભક્તિ કરો તો એવી રીતે કરજો પાનબાઈ
 રાખજો વચનમાં વિશ્વાસ રે,
 ગંગા સતી એમ બોલિયા રે પાનબાઈ
 હરિજન હરિ કેરા દાસ રે .... ભક્તિ રે કરવી એણે


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વીજળીને ચમકારે મોતીડાં પરોવો રે પાનબાઇ !

 વીજળીને ચમકારે મોતીડાં પરોવો રે પાનબાઇ !
 નહિતર અચાનક અંધારા થાશે જી;
 જોત રે જોતાંમાં દિવસો વહી રે ગયા પાનબાઇ !
 એકવીસ હજાર છસોને કાળ ખાશે જી … વીજળીને ચમકારે
 જાણ્યા રે જેવી આ તો અજાણ છે રે વસ્તુ પાનબાઇ !
 અધૂરિયાને નો કે’વાય જી,
 ગુપત રસનો આ ખેલ છે અટપટો,
 આંટી મેલો તો સમજાય જી … વીજળીને ચમકારે
 મન રે મૂકીને તમે આવો રે મેદાનમાં પાનબાઇ !
 જાણી લીયો જીવ કેરી જાત જી;
 સજાતિ વિજાતિની જુગતિ બતાવું ને,
 બીબે પાડી દઉં બીજી ભાત જી … વીજળીને ચમકારે
 પિંડ રે બ્રહ્માંડથી પર છે ગુરુ પાનબાઇ !
 તેનો રે દેખાડું તમને દેશજી,
 ગંગા રે સતી એમ બોલિયાં રે સંતો,
 ત્યાં નહિ માયાનો જરીયે લેશ જી … વીજળીને ચમકારે


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છૂટાં છૂટા તીર અમને મારો મા રે બાઈજી

 છૂટાં છૂટા તીર અમને મારો મા રે બાઈજી
 મુજથી સહ્યાં નવ જાય રે
 કલેજા અમારા એણે વીંધી નાખ્યાં બાઈજી
 છાતી મારી ફાટું ફાટું થાય રે .... છૂટાં છૂટાં તીર
 બાણ રે વાગ્યા ને રુંવાડા વીંધાણા
 મુખથી નવ સહેવાય રે
 આપોને વસ્તુ અમને લાભ જ લેવા
 પરિપૂર્ણ કરોને કાય રે ... છૂટાં છૂટાં તીર
 બાણ તમને હજી નથી લાગ્યાં પાનબાઈ
 બાણ રે વાગ્યાં ને ઘણી વાર રે,
 બાણ રે વાગ્યાથી સુરતા ચઢે આસમાનમાં
 ને દેહની દશા મટી જાય રે .... છૂટાં છૂટાં તીર
 બાણ રે વાગ્યાં હોય તો બોલાય નહીં પાનબાઈ
 પરિપૂર્ણ વચનમાં વર્તાય જો,
 ગંગા સતી રે એમ જ બોલિયા
 પૂર્ણ અધિકારી કહેવાય જો .... છૂટાં છૂટાં તીર


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પરિપૂર્ણ સતસંગ હવે તમને કરાવું,

 પરિપૂર્ણ સતસંગ હવે તમને કરાવું,
 ને આપું જોને નિર્મળ જ્ઞાન રે,
 જનમવા મરવાનું તમારું મટાડીને
 ધરાવું અવિનાશીનું ધ્યાન રે ... પરિપૂર્ણ.
 નામરૂપને મિથ્યા જાણો ને
 મેલી દેજો મનની તાણાવાણ રે,
 આવો બેસો એકાંતમાં ને તમને,
 પદ આપું નિર્વાણ રે ... પરિપૂર્ણ.
 સદા રહો સતસંગમાં ને
 કરો અગમની ઓળખાણ રે,
 નુરત સુરતથી નિજ નામ પકડીને
 જેથી થાય હરિની જાણ રે ... પરિપૂર્ણ.
 મેલ ટળે ને વાસના ગળે,
 ન કરો પુરણનો અભિયાસ રે,
 ગંગા રે સતી એમ બોલિયાં,
 થાય મૂળ પ્રકૃતિનો નાશ રે ... પરિપૂર્ણ.



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પી લેવો હોય તો રસ પી લેજો

 પી લેવો હોય તો રસ પી લેજો
 પી લેવો હોય તો રસ પી લેજો પાનબાઈ
 પિયાલો આવ્યો ભક્તો કાળનો
 વખત વીતી ગયા પછી પસ્તાવો થાશે ને
 અચાનક ખાશે તમને કાળ રે .... પી લેવો હોય
 જાણવી રે હોય તો વસ્તુ જાણી લેજો પાનબાઈ
 નહિંતર જમીનમાં વસ્તુ જાશે રે,
 નખશીખ ગુરુજીને હૃદયમાં ભરીએ રે
 ઠાલવવાનું ઠેકાણું કહેવાશે રે ... પી લેવો હોય
 આપ રે મૂવા વિના અંત નહીં આવે ને
 ગુરુ જ્ઞાન વિના ગોથાં ખાશે રે,
 ખોળામાં બેસાડી તમને વસ્તુ આપું
 આપવાપણું તરત જડી જાવે રે .... પી લેવો હોય
 વખત આવ્યો છે તમારે ચેતવાનો પાનબાઈ
 મન મેલીને થાઓ હોંશિયાર રે,
 ગંગા સતી એમ બોલિયા રે
 હેતના બાંધો હથિયાર રે .... પી લેવો હોય

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મન વૃત્તિ જેની સદાય નીર્મળ

 મન વૃત્તિ જેની સદાય નીર્મળ
 પડે નહીં ભવસાગર માંહ્ય રે,
 સદગુરૂના ચરણમાં ચિત્ત મળી ગયું
 લાગે નહીં માયા કેરી છાંય રે ....
 પિતૃ, ગ્રહ, દેવતા કોઈ નડે નહીં
 જેનું બંધાણું વચનમાં ચિત્ત રે
 આવરણ એને એકે નહીં આવે
 વિપરિત નથી જેનું મન રે .... મન વૃતિ જેની
 અંતર કેરી આપદા સર્વે મટી ગઈ
 જેને સદગુરુ થયા મહેરબાન રે
 મન કર્મ થકી જેણે વચન પાળ્યું
 મેલી દીધું અંતર કેરું ભાન .... મન વૃતિ જેની
 હાનિ અને લાભ એકે નહીં જેને ઉરમાં
 જેને માથે સદગુરુનો હાથ રે,
 ગંગા સતી જોને એમ જ બોલિયા
 ટળી ગયા ત્રિવિધનાં તાપ રે .... મન વૃત્તિ જેની


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વચન સુણીને બેઠાં એકાંતમાં,

 વચન સુણીને બેઠાં એકાંતમાં,
 ને સુરતા લગાવી ત્રાટક માંય રે;
 સંકલ્પ વિકલ્પ સર્વે છુટી ગયા,
 ને ચિત્ત લાગ્યું વચનુંની માંય રે ... વચન.
 ખાનપાનની ક્રિયા શુદ્ધ પાળે,
 ને જમાવી આસન એકાંત માંય,
 જાતિ અભિમાનનો ભેદ મટી ગયો,
 ને વરતે છે એવાં વ્રતમાન રે ... વચન.
 ચંદ્ર સૂરજની નાડી જે કહીએ,
 ને તેનું પાળે છે વ્રતમાન રે,
 ચિત્તમાં માત્ર જે વચન મૂકે,
 ક્રિયા શુદ્ધ થઈ ત્યારે અભ્યાસ જાગ્યો,
 >ને પ્રકટ્યું નિર્મળ જ્ઞાન રે
 ગંગા રે સતી એમ બોલિયાં રે,
 કીધો વાસનાનો સર્વ ત્યાગ રે ... વચન.


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SAWAL PRASHNA QUESTION

જીવ ને શિવની થઈ એકતા

 જીવ ને શિવની થઈ એકતા
 ને પછી કહેવું નથી રહ્યું કાંઈ રે,
 દ્વાદશ પીધો જેણે પ્રેમથી ને તે
 સમાઈ રહ્યો સુનની માંય રે ... જીવ ને.
 તમે હરિ હવે ભરપૂર ભાળ્યા
 ને વરતો કાયમ ત્રિગુણથી પાર રે,
 >રમો સદા એના સંગમાં
 ને સુરતા લગાડો બાવન બાર રે ... જીવ ને.
 મૂળ પ્રકૃતિથી છૂટી ગયા
 ને તૂટી ગઈ સઘળી ભ્રાંત રે,
 તમારું સ્વરૂપ તમે જોઈ લીધું,
 ને જ્યાં વરસો સદા સ્વાંત રે ... જીવ ને.
 સદા આનંદ હરિના સ્વરૂપમાં જે
 જ્યાં મટી મનની તાણા વાણ રે;
 ગંગા રે સતી એમ બોલિયાં રે,
 તમે પદ પામ્યા નિર્વાણ રે ... જીવ ને.


Saint Nagesh Sharma  સંત નાગેશ    संत नागेश



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SAWAL PRASHNA QUESTION

ચક્ષુ બદલાણી ને સુવાંત વરસી,

 ચક્ષુ બદલાણી ને સુવાંત વરસી,
 ને ફળી ગઈ પૂરવની પ્રીત રે.
 ટળી ગઈ અંતરની આપદા,
 ને પાળી સાંગોપાંગ રૂડી રીત રે ... ચક્ષુ.
 નાભિકમળમાંથી પવન ઉલટાવ્યો,
 >ને ગયો પશ્ચિમ દિશામાંહ્ય રે,
 સુસ્તી ચડી ગઈ સૂનમાં,
 ને ચિત્ત માંહી પુરૂષ ભાળ્યા ત્યાંય રે ... ચક્ષુ.
 અવિગત અલખ અખંડ અવિનાશી રે
 અવ્યકતા પુરૂષ અવિનાશી રે,
 બાળીને સુરતા એમાં લય થઈ ગઈ,
 હવે મટી ગયો જન્મનો ભાસ રે ... ચક્ષુ.
 ઉપદેશ મળી ગયો
 ને કરાવ્યો પરિપૂરણ અભ્યાસ રે,
 ગંગા રે સતી એમ બોલિયાં
 ને આવ્યો પરિપૂરણ વિશ્વાસ રે ... ચક્ષુ.


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SAWAL PRASHNA QUESTION

મેરુ તો ડગે જેનાં મન ના ડગે મરને ભાંગી પડે બ્રહ્માંડજી;

 મેરુ તો ડગે જેનાં મન ના ડગે મરને ભાંગી પડે બ્રહ્માંડજી;
 વિપત્તિ પડે તોય વણસે નહીં; સોઈ હરિજનનાં પ્રમાણજી - મેરુ.

 ચિત્તની વૃતિ જેની સદાય નિરમળ ને કોઈની કરે નહિ આશજી;
 દાન દેવે પણ રહે અજાસી, રાખે વચનમાં વિશ્વાસ રે જી – મેરુ.

 હરખ ને શોકની આવે નહી હેડકી, આઠ પહોર રહે આનંદજી,
 નિત્ય રે નાચે સત્સંગમાં ને તોડે માયા કેરા ફંદજી – મેરુ.

 તન મન ધન જેણે પ્રભુને સમર્પ્યાં, તે નામ નિજારી નર ને નારજી,
 એકાંતે બેસીને આરાધના માંડે તો, અલખ પધારે એને દ્વારજી – મેરુ.

 સતગુરુ વચનમાં શૂરા થઈ ચાલે, શીશ તો કર્યાં કુરબાન રે,
 સંકલ્પ વિકલ્પ એકે નહિ ઉરમાં, જેણે મેલ્યાં અંતરનાં માન રે – મેરુ.

 સંગત કરો તો તમે એવાની કરજો, જે ભજનમાં રહે ભરપુરજી,
 ગંગા સતી એમ બોલિયાં, જેને નેણ તે વરસે ઝાઝાં નૂરજી – મેરુ.


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