थोड़ी सी ज्ञान की बाते भाग -१
यहाँ तक पहुंचने वाले जो भी है, जो भी इन वाक्यों को पढ़ रहे है, सुन रहे है या समझ रहे है जाहिर है की वह लोग ज्ञानी ही है और अधिक ज्ञान के चाहत ने उन्हें यहाँ तक पहुंचाया है! इसीलिए मैं अपने हिसाब से उनका जो भी भला कर पाउँगा वह अवश्य करूँगा!
हम अक्सर देखते है की व्यक्ति अपने आप को किसी-न-किसी तरह की उलझन में डाल ही देता है, फिर ये उसकी स्वयं की इच्छा हो या न हो! ये सब अक्सर अज्ञानता-वश और कभी कभी क्रोध में लिए हुए या अत्यधिक उल्हास में लिए हुए निर्णय के कारन ही अक्सर होता है! आज हम जीवन में जीने की कुछ छोटी छोटी बातो पे ध्यान देंगे और अपने आप को सही वर्तन में परिवर्तित करने की कोशिश करेंगे!
व्यक्ति के जीवन में सब से महत्वपूर्ण जो वस्तु है जिसके कारन उसे मान, सम्मान, अपमान, ये सब मिलता है वह है उसका व्यवहार और अपने व्यवहार के फलस्वरूप ही अपने कर्मो को बांधता है और मुक्त भी होता है! इसीलिए सबसे प्रथम यदि हमें कोई वस्तु सीखने लायक है तो वह है व्यवहार! व्यक्ति को अपने हिसाब से समझने के लिए बुद्धि मिली होती है परन्तु ज्यादातर मानव दूसरे झंझटों में फंस के बुद्धि का पतन कर लेता है और जो उसके लिए सही है उन सब को दूर कर देता है, वह यही सोचता है की सब चलता है या इतना तो चल ही सकता है! इसीलिए आज हम उन बातो पे रौशनी डालेंगे जो हमारे रोज़मर्रा की जीवन-यापन में दिनचर्या में आती ही है और हम उसकी रुझान में आ के अपना पतन कर लेते है या पतन की तरफ मूड जाते है!
गुजराती में एक कविता की पंक्ति है जिसको मैंने बहुत से विद्वानों के सामने भी रख चुका हूँ परन्तु जानते हुए भी किसी ने मुझे उस वाक्य को सार में बताया नहीं ना ही तो इसके विषय में कोई चर्चा की! आगे पंक्ति लिख रहा हूँ!
"हूँ बोलू पछि, मुख खोलू पछि, प्रथम मने आचरण आपजे!"
यह सिर्फ एक लाइन है उस कविता की जिसको यदि समझने जाए तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं लगती है सिंपल सी साधारण सी लाइन है सीधी सीधी बात लिखी है की बोलने के पहले मुझ में वह वस्तु दिखनी चाहिए मेरा व्यवहार भी वैसा ही रहना चाहिए बस!!!???? अब दोबारा उस लाइन को पढ़िए!, क्या सही में आप ने जितना समझा जितना जाना ये उतना ही है या उससे बढ़ कर है!
जी हाँ जवाब एकदम चकाचौंध करने वाला ही है की ये वाक्य अपने आप में बहुत बड़ा है!! सार देखने जाएंगे और इसकी गहरायी में उतरेंगे तो समुद्र भी छोटा लगने लगेगा क्योंकि आज की तारीख में समुद्र पार करना आसान हो चुका है परन्तु इस वाक्य को पूर्ण करना नामुमकिन! बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग कर के व्यक्ति के दोष का खुलासा यहाँ पे हो गया है! हम अक्सर देखते है प्रवचनों को देने वालो को या कोई भी सलाह देने वाले को सांत्वना देने वाले को परन्तु जब उनकी खुद की बारी आती है तो नज़ारा कुछ और ही देखने मिलता है! जीवन में अक्सर हमे अपने आप में परिवर्तन लाने चाहिए ही चाहिए वैसे भी यह एक सत्य ही है की "परिवर्तन संसार का नियम है" और जब यह नियम संसार का है तो हम भी इसी संसार में रहते है ना? तो इस नियम को पालना हमारा कर्तव्य भी है और धर्म भी!
अपने आप को परिवर्तन करने का मतलब होता क्या है?? समय के अनुसार अपने में परिवर्तन लाना चाहिए मगर सिर्फ उन परिवर्तन को ही अपने में लाना जिनसे तुम्हारा धर्म, या प्रभु इच्छा को ठेस ना पहुंचे। जो बातें हित में नहीं है उन्हें अपनाना या करना बिलकुल गलत है! समय के अनुसार तकनीक को अपनाना अच्छी बात होती है परन्तु तकनीक का प्रयोग कर के अपने गुनाह को या किसी अपने के गुनाह को दबाना, छुपाने, किसी और व्यक्ति पे धकेलना सरासर गलत और अनीतिपूर्ण है! अनीतिपूर्ण किया हुआ व्यवहार कभी भी सार्थक नहीं हो सकता है समय उसको अपनी चपेट में लेता है ही!
मगर फिर भी मनुष्य अपने करनी से बाज नहीं आता है और अपनी कथनी और करनी में बहुत बड़ा अंतर बनाए रखता है! आखिर ऐसा होता है क्यों! क्योंकि सब कुछ जानते समझते हुए भी उसने अपने में तबदीली(परिवर्तन) नहीं लाया होता है! इसीलिए वह खुद तो अपने करनी का भोगी बनता है साथ साथ में अपने हितार्थियो को भी अपनी चपेट में ले लेता है! क्योंकि सभी जानते है गलत करना और गलत सहना और गलत क्रिया को देखकर उसे छुपाना भी गुनाह ही है! इसके चलते आप पाप के भागीदार हो ही जाते है!
सबसे पहले तो हम ज्यादातर देखते है "निंदा" ये मनुष्य की आज की तारीख में सब से खतरनाक बीमारी है, और सब से बड़ी बात की इस बीमारी से कोई बचा भी नहीं है! यह बीमारी एक तरह की छूत वाली ही बीमारी पकड़ के चलिए जो फैलते जा रही है कही भी इसका कोई छोर नहीं दिख रहा है, परन्तु असत्य, अनीति, अन्याय का एक दिन अंत अवश्य होता ही है इसके लिए जरुरत होती है किसी के पहल करने की और यही पहल हमें और आप को सीखना है! सर्व-प्रथम तो "निंदा" एकदम बंद कर दीजिए! निंदा करना अत्यंत ही घोर किस्म का पाप के समान ही है यह मनुष्य को ना आगे बढ़ने देती है, ना खाने देती, है ना जीने देती है, हर तरफ से यह मनुष्य को ओछी प्रवृत्ति का ग़ुलाम बन के रख देती है! निंदा करना, निंदा सुनना दोनों ही समान है, निंदा करने वाला व्यक्ति तो हल्का होता है ही निंदा सुनने वाला व्यक्ति भी उतना ही हल्का होता है!
एक उदाहरण के लिए रामायण की बात कह रहा हूँ की जब भरत राम को मिलने जा रहे थे वन में;, तो उन्हें भीतर ही भीतर उदासीनता खाते जा रही थी उन्हें एक भय बैठा हुआ था वह भय था राम से आँख मिलाने का भय! क्योंकि वह जानते थे की राम "व्यक्ति श्रेष्ठ" है वे किसी की निंदा सुनना पसंद नहीं करेंगे अपितु निंदा करने वाले को भी पसंद नहीं करेंगे अतः वह असमंजस में थे की कहीं भूल से मेरे मुख से माता कैकयी के विरुद्ध कुछ निकल गया तो मैं अपनी हस्ती को भी खो बैठूंगा राम के सामने!
यह क्या था?? ये भय क्यों था?? जी हाँ ये राम के व्यवहार का असर था भरत पे जो भरत को राम के समक्ष जाने से भी रोक रहा था, ठीक उसी प्रकार हमें अपने आप को राम के अनुरुप बदलना होगा, किसी की भी निंदा सुननी या करनी बंद कर देनी होगी और जब हम ये आदत अपने में डाल देंगे तो कोई भी निंदक हमारे पास आ के किसी और की बुराई नहीं करेगा और इस तरह से आपका अपने में किया हुआ परिवर्तन दूसरे के समझ में आते देर नहीं लगेगी और एक बार जो वस्तु समझ में आ गयी तो उसे अपनाना कोई दूर नहीं होता है!
व्यक्ति अपने आप को आगे बढ़ने की लालसा में ज्यादातर निंदा का पापी बनता है, अपने शिष्टाचार को खो देता है इसका कारन यही है की समाज में बढ़ती अराजकता उसे अपने आप को संभालने का मौका नहीं देती है और वह अपने आप को स्थापित करने के या यूँ कहिये की बहुत जल्दी स्थापित करने के चक्कर में निंदा का भागी बन जाता है! कहा जाता है की यदि किसी बड़े व्यक्ति के पास जल्दी पहुंचना हो तो उसका जिसके साथ में बैर हो उसकी निंदा शुरू कर देनी चाहिए फिर देखिये तुरंत आप हाथोंहाथ लिए जायेंगे और उसकी बगल में बिठा दिए जायेंगे! और ये हम आज की राजनीति में भी देख रहे है! नाम नहीं लेना चाहूँगा किसी का परन्तु आज लोग बुराई को अपना कर के किसी की निंदा भर कर देने से विश्व विख्यात हो जाते है! अपना करियर बना लेते है तो आप खुद सोचिये जिस समाज में ऐसे लोग मौजूद होंगे वहा पे आपको कितनी दिक्कत आ सकती है! आखिर आप अपने आने वाली पीढ़ी को कैसा समाज दे रहे है कौन से आदर्श प्रश्तुत कर रहे है! इसका तो कारन ढूँढना ही पड़ेगा! मगर क्या आप ने ये सोचा की वह व्यक्ति कैसे इस मुकाम पे पंहुचा तो आप समझ पाएंगे की उसे ऊपर लेके जाने वाला और कोई नहीं अपितु हम ही थे क्योंकि हम ने ही उसे निंदा करने दी है! उसके बोले हुए वक्तव्यों को सुना है और उसपे प्रतिक्रिया भी दी है और एक भीषण प्रतिक्रिया के कारन उसके बोले हुए शब्दों का महत्व बढ़ गया है जिसके चलते वह व्यक्ति प्रसिद्द हो गया है! इसीलिए सब से शुरुआत में मैंने यही कहा की निंदा करना तो हलकी बात है ही परन्तु निंदा सुनना और भी हलकी बात है! निंदा सुनने से निंदक को बल मिलता है उसे अपनी गलती का एहसास नहीं होता है! उसे ये बोध नहीं होता है की जो वो कर रहा है वह गलत है! और इस गलती को वह दोहराता रहता है!
"ऐसे व्यक्ति को सुधारना आप का कर्तव्य नहीं है और यह कर्तव्य इसीलिए नहीं है की आप को सिर्फ अपने आप को सुधारना है" आप निंदा को मत सुनिए निंदक खुद बा खुद बंद हो जायेगा!! व्यक्ति निंदा में बरबस पड़ जाता है उसे कई बार तो पता भी नहीं चलता है की कैसे वह इस दलदल में आ गया और ऐसे दलदल से बचने के लिए जरुरी है हम व्यक्ति को पहचानना सीखे! संस्कृत में एक लाइन है
अकामना कामेंति, कामनें परीतजयते!!
हो सकता है कुछ स्पेलिंग मिस्टेक हो इसमें मगर मैं संधि विच्छेद कर के यहाँ लिख रहा हूँ
अ-कामना = न चाहने वाला
कामेंति = की इच्छा करना
कामनें = चाहने वाले का
परीतजयते = परित्याग
मेरे ख्याल से अब आप तकरीबन मेरी बात समझ गए होंगे! हम अक्सर लाइफ में ऐसा ही करते है! जो हमें हक़ीक़त में चाहते है हम उनसे दूर होते है और जो हमें नहीं चाहते है जो हमें धोखे में रखते है हम उनके साथ में रहते है और उनको ही सही मानते है! और ऐसा करने वाले व्यक्ति को मुर्ख नहीं अपितु महा-मूर्ख समझना चाहिए! हम अक्सर इस तरह की बातों के कारन परेशान होते ही है! व्यक्ति में लोगो की पहचान, परख होनी ही चाहिए क्योंकि, यदि आप में किसी व्यक्ति को या वस्तु को परखने की ख़ासियत नहीं है तो आप मुर्ख बनाने वालो के लिए खुला न्यौता हो! चापलूस तरह के लोग अक्सर ऐसे लोगो के तलाश में रहते है इन्हे पहचानना मुश्किल तो है मगर नामुमकिन नहीं है! इसीलिए अपने आप को सही तरीके से पेश कीजिए और सामने वाले को अच्छी तरह से परखिये, बिना परखे कोई भी काम करना या सामने वाले के ऊपर विश्वास रख के आश्वस्त हो जाना मूर्खतापूर्ण होता है! एक कहानी है जिसे मैं यहाँ लिख रहा हूँ उदाहरण के तौर पे..
"एक बहुत ही धनी व्यक्ति था उसके पास इतना धन हो गया था की वह कोई भी काम करता ही नहीं था ! दोपहर में आराम से उठता अपनी दुकानों, खेतों खलिहानों, अनाज के भंडार पे एक नज़र डालता और रोख लेके आगे चलता बनता! धीरे धीरे समय बीतता गया और अर्जित होने वाले धन में कमी आने लगी देखते देखते हालत ये हो गयी की अब धन आना ही बंद हो गया जो कुछ पहले से पड़ा था उसमे भी दिन दोगुना रात चौगुना कमी आनी शुरू हो गयी! वह परेशान रहने लगा और सेहत भी गिरने लगी!
उसी गाँव में एक महात्मा उन दिनों भ्रमण करने आये थे! उन्हें इस बात का पता लगा तो उन्होंने भलाई के हिसाब से उस सेठ के घर एक दौरा करने का सोचा! और पहुंच गए! वहा उन्होंने देखा और सेठ से बात करने पे पता चला की उनकी कैसी दुर्दशा हो गयी है! खेत और दुकान में आमदनी काम हो गयी है वगेरा! महात्मा में कुछ विचार किया फिर उस सेठ से कहा की कल से प्रातःकाल में सूर्य के उदय होने से पहले आप उठ जाइये और आप के खेत का विचरण कीजिये, उसके बाद खलिहानों में एक नज़र दीजिये उसके बाद दुकानों पे हर जगह महीने भर में देखिये आप को अंतर महसूस हो जायेगा!
"मरता क्या न करता" फिर क्या बात थी जैसे ही सुबह वह भोर में खेत पे गया तो क्या देखता है की कोई मज़दूर अपने काम पे नहीं है!!! खलिहान (भंडार) पे देखा की कोई पहरेदार जग नहीं रहा है, भंडार खुले पड़े है और उसमे जानवर अनायास अपना पेट भर रहे है और अनाज ख़राब भी कर रहे है! वह वहाँ से आगे दुकानों पे गया देखा की दुकानें खुली ही नहीं है काफी समय बीतने के बाद में बाजार खुल चुका था परन्तु उसकी दुकानें वैसे की वैसे बंद ही थी! अब वह महात्मा की बात को समझ गया और नित्यक्रम की भांति अपने काम को करने लगा! ये देख के मज़दूर भी समझ गए की मालिक सही समय पे आ रहा है और यदि हमने विलम्ब किया तो अपने काम से हाथ धोना पड़ेगा और वो लोग समय पे आने लगे! भंडार के पहरेदार भी पहरेदारी सही से देने लग गए! और दुकाने भी समय पे खुलने लगी और कुछ ही दिन में उस सेठ की आमदनी पहले से भी अच्छी हो गयी परन्तु अब उसने अपने नित्यक्रम को ज्यों का त्यों रखा!"
यहाँ व्यक्ति अपने हिसाब से अपना सार निकाल सकता है परन्तु उस मालिक के जगह पे रह के सोचा जाए तो सही बात ये है की उसने लोगो को पहचानने में गलती की यदि वह सही व्यक्ति को अपने पास काम पे रखता तो ये नौबत नहीं आती, इसका मतलब ये नहीं होता है की उसका देर तक सोना तब बनता था! जागना और निगरानी रखना आप की प्रथम जरुरत और कर्तव्य है परन्तु उसने सही चुनाव किया होता तो उसे ये दिन न देखना पड़ता! व्यक्ति को परखना बहुत जरुरी होता है यदि बिना परखे व्यक्ति का चुनाव आप उसकी चापलूसी पे कर लेंगे तो आप को आगे चल के सेठ ही की तरह नुकसान उठाना पड़ेगा !
हम अक्सर सोचते है की हमें शांति मिले और अगर देखा जाये तो हमें शांति कभी मिलती नहीं है क्योकि मानव इच्छा को खत्म नहीं करता है अक्सर बढाता रहता है! जैसे की शादी नहीं हो रही है, शादी हो गयी तो बच्चे की ख़्वाहिश जागती है! बच्चा हो गया तो उसकी पढ़ाई - लिखाई फिर उसकी शादी बच्चे! अच्छा पैसा, अच्छा घर, गाड़ी जेवर एक के बाद एक डिमांड्स बढ़ती जाती है कही खत्म दीखता नहीं! और अंत में उम्र हो जाने पे वह कहा आते है इश्वर के शरण में की नहीं सच्ची शांति तो यही मिल रही है अब कोई और दुखड़ा सुनता नहीं है! तो मूर्ति के सामने आंसू बहा के अपने आप को हल्का कर लेते है! १ घंटा २ घंटा ४ घंटा जैसा जिसकी कैपेसिटी वैसा बैठ के शांति की अनुभूति को प्राप्त करता है!
यहाँ पे बातो को मैंने थोड़ा जल्दबाजी में और डायरेक्ट लिख दिया है तो हो सकता है की यह एक तर्क वितर्क का मुद्दा भी बन जाये तो उस वस्तु को ज़रा कुछ समय के लिए दूर रखिये और सोचिये की क्या मैंने गलत लिखा है! व्यक्ति कैसे भी रस्ते पे जाये, कुछ भी करे परन्तु अंत में शरण वह इसी की लेते है और तभी ही उन्हें शांति की अनुभूति होती है. वरन शांति का मार्ग भी यही है! परन्तु एक समय के लिए इसे भी दूर कीजिये इसमें आप को जाना है परन्तु सर के ऊपर जो दुनियादारी पाल के रखी है उसे कौन देखेगा!! देखिये सब से पहले तो एक बात क्लियर कर दू की दुनिया आप के भरोसे पे नहीं चलती है इसीलिए अपने आप को तुर्रम खान समझने की गलती तो बिलकुल मत कीजिये! एक समय की बात है "सिकंदर तब मिटटी में मिल चूका था पर माँ की ममता को कौन समझाए तो माँ चाहत कब्रिस्तान पहुंच गयी और "सिकंदर" नाम की आवाज़ लगाने लगी उसकी करुणा उसका अलाप देख के विधाता से रहा न गया और आवाज़ आई "किस सिकंदर को ढूंढ रही हो! यहाँ तो बहुत से हो गए है!" सोचिये तनिक सोचे और समझे! बहुत से लोगो को यही धारणा होती है की उनके रहते ही सब हो रहा है वह नहीं होंगे तो दुनिया जैसे रुक ही जाएगी तो इस बात को यही रोक दे! इस सोच को यही से बदल दे क्योकि
"धरती राजा राम की कोई ने न पूरी आस, कयिक राणे रम गए कयिक गए निराश"
यहाँ पे आप जैसे कितने आ के चले गए पर इस धरती पे सब कुछ चला आ रहा है और आगे भी चलता ही रहेगा! और क्या गारंटी है की आप के रहने पे आप के घर वाले अच्छा खा रहे है हो सकता है कल आप नहीं रहे तो वह और भी अच्छा जीवन व्यतीत कर सके ! देखिये होने को कुछ भी होगा परन्तु उसके विचार में अपना जीवन नष्ट कर लेना उचित नहीं है! आप अपना कर्मा करते रहिये फल की चिंता छोड़ दीजिये किये हुए कर्मो का फल अवश्य मिलता है परन्तु वह देना उसके हाथ में है आप के हाथ में नहीं! व्यक्ति अपना कर्म ज्यादातर फल को ध्यान में रख के ही करता है परन्तु हम अक्सर देखते है की वह हो नहीं पाता है! श्री कृष्णा ने गीता में कहा है
!!कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि!!
अब यहाँ किसी को इतना ज्ञान देने की जरुरत तो है नहीं की ये क्या लिखा है या क्या कहा है! सभी इस वाक्य को जानते है पहचानते है मानते भी है परन्तु जीवन में उतारते नहीं है! टारगेट बनाने की जो कला है मनुष्य में उसके लिए तो एक ही शब्द निकलता है "वाह" और इससे अधिक कहे भी क्या!!
कहने का अर्थ यही है की कर्म को करते रहिये! सही दिशा में सही व्यवहार में बस!
अधिक....
Saint Nagesh Sharma સંત નાગેશ संत नागेश
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SAWAL PRASHNA QUESTION
यहाँ तक पहुंचने वाले जो भी है, जो भी इन वाक्यों को पढ़ रहे है, सुन रहे है या समझ रहे है जाहिर है की वह लोग ज्ञानी ही है और अधिक ज्ञान के चाहत ने उन्हें यहाँ तक पहुंचाया है! इसीलिए मैं अपने हिसाब से उनका जो भी भला कर पाउँगा वह अवश्य करूँगा!
हम अक्सर देखते है की व्यक्ति अपने आप को किसी-न-किसी तरह की उलझन में डाल ही देता है, फिर ये उसकी स्वयं की इच्छा हो या न हो! ये सब अक्सर अज्ञानता-वश और कभी कभी क्रोध में लिए हुए या अत्यधिक उल्हास में लिए हुए निर्णय के कारन ही अक्सर होता है! आज हम जीवन में जीने की कुछ छोटी छोटी बातो पे ध्यान देंगे और अपने आप को सही वर्तन में परिवर्तित करने की कोशिश करेंगे!
व्यक्ति के जीवन में सब से महत्वपूर्ण जो वस्तु है जिसके कारन उसे मान, सम्मान, अपमान, ये सब मिलता है वह है उसका व्यवहार और अपने व्यवहार के फलस्वरूप ही अपने कर्मो को बांधता है और मुक्त भी होता है! इसीलिए सबसे प्रथम यदि हमें कोई वस्तु सीखने लायक है तो वह है व्यवहार! व्यक्ति को अपने हिसाब से समझने के लिए बुद्धि मिली होती है परन्तु ज्यादातर मानव दूसरे झंझटों में फंस के बुद्धि का पतन कर लेता है और जो उसके लिए सही है उन सब को दूर कर देता है, वह यही सोचता है की सब चलता है या इतना तो चल ही सकता है! इसीलिए आज हम उन बातो पे रौशनी डालेंगे जो हमारे रोज़मर्रा की जीवन-यापन में दिनचर्या में आती ही है और हम उसकी रुझान में आ के अपना पतन कर लेते है या पतन की तरफ मूड जाते है!
गुजराती में एक कविता की पंक्ति है जिसको मैंने बहुत से विद्वानों के सामने भी रख चुका हूँ परन्तु जानते हुए भी किसी ने मुझे उस वाक्य को सार में बताया नहीं ना ही तो इसके विषय में कोई चर्चा की! आगे पंक्ति लिख रहा हूँ!
"हूँ बोलू पछि, मुख खोलू पछि, प्रथम मने आचरण आपजे!"
यह सिर्फ एक लाइन है उस कविता की जिसको यदि समझने जाए तो कोई बहुत बड़ी बात नहीं लगती है सिंपल सी साधारण सी लाइन है सीधी सीधी बात लिखी है की बोलने के पहले मुझ में वह वस्तु दिखनी चाहिए मेरा व्यवहार भी वैसा ही रहना चाहिए बस!!!???? अब दोबारा उस लाइन को पढ़िए!, क्या सही में आप ने जितना समझा जितना जाना ये उतना ही है या उससे बढ़ कर है!
जी हाँ जवाब एकदम चकाचौंध करने वाला ही है की ये वाक्य अपने आप में बहुत बड़ा है!! सार देखने जाएंगे और इसकी गहरायी में उतरेंगे तो समुद्र भी छोटा लगने लगेगा क्योंकि आज की तारीख में समुद्र पार करना आसान हो चुका है परन्तु इस वाक्य को पूर्ण करना नामुमकिन! बहुत ही सरल भाषा का प्रयोग कर के व्यक्ति के दोष का खुलासा यहाँ पे हो गया है! हम अक्सर देखते है प्रवचनों को देने वालो को या कोई भी सलाह देने वाले को सांत्वना देने वाले को परन्तु जब उनकी खुद की बारी आती है तो नज़ारा कुछ और ही देखने मिलता है! जीवन में अक्सर हमे अपने आप में परिवर्तन लाने चाहिए ही चाहिए वैसे भी यह एक सत्य ही है की "परिवर्तन संसार का नियम है" और जब यह नियम संसार का है तो हम भी इसी संसार में रहते है ना? तो इस नियम को पालना हमारा कर्तव्य भी है और धर्म भी!
अपने आप को परिवर्तन करने का मतलब होता क्या है?? समय के अनुसार अपने में परिवर्तन लाना चाहिए मगर सिर्फ उन परिवर्तन को ही अपने में लाना जिनसे तुम्हारा धर्म, या प्रभु इच्छा को ठेस ना पहुंचे। जो बातें हित में नहीं है उन्हें अपनाना या करना बिलकुल गलत है! समय के अनुसार तकनीक को अपनाना अच्छी बात होती है परन्तु तकनीक का प्रयोग कर के अपने गुनाह को या किसी अपने के गुनाह को दबाना, छुपाने, किसी और व्यक्ति पे धकेलना सरासर गलत और अनीतिपूर्ण है! अनीतिपूर्ण किया हुआ व्यवहार कभी भी सार्थक नहीं हो सकता है समय उसको अपनी चपेट में लेता है ही!
मगर फिर भी मनुष्य अपने करनी से बाज नहीं आता है और अपनी कथनी और करनी में बहुत बड़ा अंतर बनाए रखता है! आखिर ऐसा होता है क्यों! क्योंकि सब कुछ जानते समझते हुए भी उसने अपने में तबदीली(परिवर्तन) नहीं लाया होता है! इसीलिए वह खुद तो अपने करनी का भोगी बनता है साथ साथ में अपने हितार्थियो को भी अपनी चपेट में ले लेता है! क्योंकि सभी जानते है गलत करना और गलत सहना और गलत क्रिया को देखकर उसे छुपाना भी गुनाह ही है! इसके चलते आप पाप के भागीदार हो ही जाते है!
सबसे पहले तो हम ज्यादातर देखते है "निंदा" ये मनुष्य की आज की तारीख में सब से खतरनाक बीमारी है, और सब से बड़ी बात की इस बीमारी से कोई बचा भी नहीं है! यह बीमारी एक तरह की छूत वाली ही बीमारी पकड़ के चलिए जो फैलते जा रही है कही भी इसका कोई छोर नहीं दिख रहा है, परन्तु असत्य, अनीति, अन्याय का एक दिन अंत अवश्य होता ही है इसके लिए जरुरत होती है किसी के पहल करने की और यही पहल हमें और आप को सीखना है! सर्व-प्रथम तो "निंदा" एकदम बंद कर दीजिए! निंदा करना अत्यंत ही घोर किस्म का पाप के समान ही है यह मनुष्य को ना आगे बढ़ने देती है, ना खाने देती, है ना जीने देती है, हर तरफ से यह मनुष्य को ओछी प्रवृत्ति का ग़ुलाम बन के रख देती है! निंदा करना, निंदा सुनना दोनों ही समान है, निंदा करने वाला व्यक्ति तो हल्का होता है ही निंदा सुनने वाला व्यक्ति भी उतना ही हल्का होता है!
एक उदाहरण के लिए रामायण की बात कह रहा हूँ की जब भरत राम को मिलने जा रहे थे वन में;, तो उन्हें भीतर ही भीतर उदासीनता खाते जा रही थी उन्हें एक भय बैठा हुआ था वह भय था राम से आँख मिलाने का भय! क्योंकि वह जानते थे की राम "व्यक्ति श्रेष्ठ" है वे किसी की निंदा सुनना पसंद नहीं करेंगे अपितु निंदा करने वाले को भी पसंद नहीं करेंगे अतः वह असमंजस में थे की कहीं भूल से मेरे मुख से माता कैकयी के विरुद्ध कुछ निकल गया तो मैं अपनी हस्ती को भी खो बैठूंगा राम के सामने!
यह क्या था?? ये भय क्यों था?? जी हाँ ये राम के व्यवहार का असर था भरत पे जो भरत को राम के समक्ष जाने से भी रोक रहा था, ठीक उसी प्रकार हमें अपने आप को राम के अनुरुप बदलना होगा, किसी की भी निंदा सुननी या करनी बंद कर देनी होगी और जब हम ये आदत अपने में डाल देंगे तो कोई भी निंदक हमारे पास आ के किसी और की बुराई नहीं करेगा और इस तरह से आपका अपने में किया हुआ परिवर्तन दूसरे के समझ में आते देर नहीं लगेगी और एक बार जो वस्तु समझ में आ गयी तो उसे अपनाना कोई दूर नहीं होता है!
"ऐसे व्यक्ति को सुधारना आप का कर्तव्य नहीं है और यह कर्तव्य इसीलिए नहीं है की आप को सिर्फ अपने आप को सुधारना है" आप निंदा को मत सुनिए निंदक खुद बा खुद बंद हो जायेगा!! व्यक्ति निंदा में बरबस पड़ जाता है उसे कई बार तो पता भी नहीं चलता है की कैसे वह इस दलदल में आ गया और ऐसे दलदल से बचने के लिए जरुरी है हम व्यक्ति को पहचानना सीखे! संस्कृत में एक लाइन है
अकामना कामेंति, कामनें परीतजयते!!
हो सकता है कुछ स्पेलिंग मिस्टेक हो इसमें मगर मैं संधि विच्छेद कर के यहाँ लिख रहा हूँ
अ-कामना = न चाहने वाला
कामेंति = की इच्छा करना
कामनें = चाहने वाले का
परीतजयते = परित्याग
मेरे ख्याल से अब आप तकरीबन मेरी बात समझ गए होंगे! हम अक्सर लाइफ में ऐसा ही करते है! जो हमें हक़ीक़त में चाहते है हम उनसे दूर होते है और जो हमें नहीं चाहते है जो हमें धोखे में रखते है हम उनके साथ में रहते है और उनको ही सही मानते है! और ऐसा करने वाले व्यक्ति को मुर्ख नहीं अपितु महा-मूर्ख समझना चाहिए! हम अक्सर इस तरह की बातों के कारन परेशान होते ही है! व्यक्ति में लोगो की पहचान, परख होनी ही चाहिए क्योंकि, यदि आप में किसी व्यक्ति को या वस्तु को परखने की ख़ासियत नहीं है तो आप मुर्ख बनाने वालो के लिए खुला न्यौता हो! चापलूस तरह के लोग अक्सर ऐसे लोगो के तलाश में रहते है इन्हे पहचानना मुश्किल तो है मगर नामुमकिन नहीं है! इसीलिए अपने आप को सही तरीके से पेश कीजिए और सामने वाले को अच्छी तरह से परखिये, बिना परखे कोई भी काम करना या सामने वाले के ऊपर विश्वास रख के आश्वस्त हो जाना मूर्खतापूर्ण होता है! एक कहानी है जिसे मैं यहाँ लिख रहा हूँ उदाहरण के तौर पे..
"एक बहुत ही धनी व्यक्ति था उसके पास इतना धन हो गया था की वह कोई भी काम करता ही नहीं था ! दोपहर में आराम से उठता अपनी दुकानों, खेतों खलिहानों, अनाज के भंडार पे एक नज़र डालता और रोख लेके आगे चलता बनता! धीरे धीरे समय बीतता गया और अर्जित होने वाले धन में कमी आने लगी देखते देखते हालत ये हो गयी की अब धन आना ही बंद हो गया जो कुछ पहले से पड़ा था उसमे भी दिन दोगुना रात चौगुना कमी आनी शुरू हो गयी! वह परेशान रहने लगा और सेहत भी गिरने लगी!
उसी गाँव में एक महात्मा उन दिनों भ्रमण करने आये थे! उन्हें इस बात का पता लगा तो उन्होंने भलाई के हिसाब से उस सेठ के घर एक दौरा करने का सोचा! और पहुंच गए! वहा उन्होंने देखा और सेठ से बात करने पे पता चला की उनकी कैसी दुर्दशा हो गयी है! खेत और दुकान में आमदनी काम हो गयी है वगेरा! महात्मा में कुछ विचार किया फिर उस सेठ से कहा की कल से प्रातःकाल में सूर्य के उदय होने से पहले आप उठ जाइये और आप के खेत का विचरण कीजिये, उसके बाद खलिहानों में एक नज़र दीजिये उसके बाद दुकानों पे हर जगह महीने भर में देखिये आप को अंतर महसूस हो जायेगा!
"मरता क्या न करता" फिर क्या बात थी जैसे ही सुबह वह भोर में खेत पे गया तो क्या देखता है की कोई मज़दूर अपने काम पे नहीं है!!! खलिहान (भंडार) पे देखा की कोई पहरेदार जग नहीं रहा है, भंडार खुले पड़े है और उसमे जानवर अनायास अपना पेट भर रहे है और अनाज ख़राब भी कर रहे है! वह वहाँ से आगे दुकानों पे गया देखा की दुकानें खुली ही नहीं है काफी समय बीतने के बाद में बाजार खुल चुका था परन्तु उसकी दुकानें वैसे की वैसे बंद ही थी! अब वह महात्मा की बात को समझ गया और नित्यक्रम की भांति अपने काम को करने लगा! ये देख के मज़दूर भी समझ गए की मालिक सही समय पे आ रहा है और यदि हमने विलम्ब किया तो अपने काम से हाथ धोना पड़ेगा और वो लोग समय पे आने लगे! भंडार के पहरेदार भी पहरेदारी सही से देने लग गए! और दुकाने भी समय पे खुलने लगी और कुछ ही दिन में उस सेठ की आमदनी पहले से भी अच्छी हो गयी परन्तु अब उसने अपने नित्यक्रम को ज्यों का त्यों रखा!"
यहाँ व्यक्ति अपने हिसाब से अपना सार निकाल सकता है परन्तु उस मालिक के जगह पे रह के सोचा जाए तो सही बात ये है की उसने लोगो को पहचानने में गलती की यदि वह सही व्यक्ति को अपने पास काम पे रखता तो ये नौबत नहीं आती, इसका मतलब ये नहीं होता है की उसका देर तक सोना तब बनता था! जागना और निगरानी रखना आप की प्रथम जरुरत और कर्तव्य है परन्तु उसने सही चुनाव किया होता तो उसे ये दिन न देखना पड़ता! व्यक्ति को परखना बहुत जरुरी होता है यदि बिना परखे व्यक्ति का चुनाव आप उसकी चापलूसी पे कर लेंगे तो आप को आगे चल के सेठ ही की तरह नुकसान उठाना पड़ेगा !
हम अक्सर सोचते है की हमें शांति मिले और अगर देखा जाये तो हमें शांति कभी मिलती नहीं है क्योकि मानव इच्छा को खत्म नहीं करता है अक्सर बढाता रहता है! जैसे की शादी नहीं हो रही है, शादी हो गयी तो बच्चे की ख़्वाहिश जागती है! बच्चा हो गया तो उसकी पढ़ाई - लिखाई फिर उसकी शादी बच्चे! अच्छा पैसा, अच्छा घर, गाड़ी जेवर एक के बाद एक डिमांड्स बढ़ती जाती है कही खत्म दीखता नहीं! और अंत में उम्र हो जाने पे वह कहा आते है इश्वर के शरण में की नहीं सच्ची शांति तो यही मिल रही है अब कोई और दुखड़ा सुनता नहीं है! तो मूर्ति के सामने आंसू बहा के अपने आप को हल्का कर लेते है! १ घंटा २ घंटा ४ घंटा जैसा जिसकी कैपेसिटी वैसा बैठ के शांति की अनुभूति को प्राप्त करता है!
यहाँ पे बातो को मैंने थोड़ा जल्दबाजी में और डायरेक्ट लिख दिया है तो हो सकता है की यह एक तर्क वितर्क का मुद्दा भी बन जाये तो उस वस्तु को ज़रा कुछ समय के लिए दूर रखिये और सोचिये की क्या मैंने गलत लिखा है! व्यक्ति कैसे भी रस्ते पे जाये, कुछ भी करे परन्तु अंत में शरण वह इसी की लेते है और तभी ही उन्हें शांति की अनुभूति होती है. वरन शांति का मार्ग भी यही है! परन्तु एक समय के लिए इसे भी दूर कीजिये इसमें आप को जाना है परन्तु सर के ऊपर जो दुनियादारी पाल के रखी है उसे कौन देखेगा!! देखिये सब से पहले तो एक बात क्लियर कर दू की दुनिया आप के भरोसे पे नहीं चलती है इसीलिए अपने आप को तुर्रम खान समझने की गलती तो बिलकुल मत कीजिये! एक समय की बात है "सिकंदर तब मिटटी में मिल चूका था पर माँ की ममता को कौन समझाए तो माँ चाहत कब्रिस्तान पहुंच गयी और "सिकंदर" नाम की आवाज़ लगाने लगी उसकी करुणा उसका अलाप देख के विधाता से रहा न गया और आवाज़ आई "किस सिकंदर को ढूंढ रही हो! यहाँ तो बहुत से हो गए है!" सोचिये तनिक सोचे और समझे! बहुत से लोगो को यही धारणा होती है की उनके रहते ही सब हो रहा है वह नहीं होंगे तो दुनिया जैसे रुक ही जाएगी तो इस बात को यही रोक दे! इस सोच को यही से बदल दे क्योकि
"धरती राजा राम की कोई ने न पूरी आस, कयिक राणे रम गए कयिक गए निराश"
यहाँ पे आप जैसे कितने आ के चले गए पर इस धरती पे सब कुछ चला आ रहा है और आगे भी चलता ही रहेगा! और क्या गारंटी है की आप के रहने पे आप के घर वाले अच्छा खा रहे है हो सकता है कल आप नहीं रहे तो वह और भी अच्छा जीवन व्यतीत कर सके ! देखिये होने को कुछ भी होगा परन्तु उसके विचार में अपना जीवन नष्ट कर लेना उचित नहीं है! आप अपना कर्मा करते रहिये फल की चिंता छोड़ दीजिये किये हुए कर्मो का फल अवश्य मिलता है परन्तु वह देना उसके हाथ में है आप के हाथ में नहीं! व्यक्ति अपना कर्म ज्यादातर फल को ध्यान में रख के ही करता है परन्तु हम अक्सर देखते है की वह हो नहीं पाता है! श्री कृष्णा ने गीता में कहा है
!!कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि!!
अब यहाँ किसी को इतना ज्ञान देने की जरुरत तो है नहीं की ये क्या लिखा है या क्या कहा है! सभी इस वाक्य को जानते है पहचानते है मानते भी है परन्तु जीवन में उतारते नहीं है! टारगेट बनाने की जो कला है मनुष्य में उसके लिए तो एक ही शब्द निकलता है "वाह" और इससे अधिक कहे भी क्या!!
कहने का अर्थ यही है की कर्म को करते रहिये! सही दिशा में सही व्यवहार में बस!
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