"नाम" नागेश जय गुरुदेव (दीपक बापू)

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

कुछ मूलभूत तत्वों की जानकारी

कुछ मूलभूत तत्वों की जानकारी

                  व्यक्ति बहुत सी बातों में अपने अपने हिसाब से जानकारी रखता है और उसका खुद का एक मत रहता ही है! कोई भी व्यक्ति अपने हिसाब से किसी भी टॉपिक(विषय) के ऊपर एक हद तक कुछ न कुछ बोल ही देता है बिना सोचे समझे बिना उसके सत्य को जाने और ये सब से बड़ी तकलीफ़ वाली वस्तु होती है! क्योंकि बिना सोचे समझे एक बेसिक फंडामेंटल को पकड़ के किसी के बारे में बोलना अधूरा ज्ञान दर्शाता है और ये बात सभी को पता है की अधूरा ज्ञान अक्सर धोखा ही देता है! जिसे जो भी पता है वह उसे लोगो के समक्ष रखने का पूरा अधिकार है इसके लिए मैं मना नहीं कर रहा हु परन्तु कोई भी वस्तु किसी के सामने रखने के पहले उसे बोल दीजिए सत्य को स्वीकार कीजिये की आप को जितना पता है आप उतना बता रहे है यदि ये उसके भी पर है तो कृपा कर के मुझे मार्ग दिखाइएगा और मेरी ग़लती को सुधारने का मौका दीजिए गा इस तरह से अपने आप को श्रोता के समक्ष  सही ढंग से रख पाएंगे और श्रोता भी आप को पहले सुनेंगे वर्ना क्या होता है की आज की तारीख में हर व्यक्ति अपने आप को पूरा मानता है और किसी को भी बोलने का मौका देना नहीं चाहता है और अंधेरे में ही पड़ा रहता है! आप उसे अगर बाहर निकालना चाहते है तो पहले आपको उसके मन को अपने आप में उतारना होगा फिर उसके साथ में बात करनी होगी!


         मनुष्य जीवन में बेसिक बातें अधिकतर तो जानता ही है! और अगर नहीं जानता है तो हम यहाँ कुछ टूक में लिखने का प्रयास कर रहे है!(सुझाव आमंत्रित है)
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                         मनुष्य पांच तत्वों से बना है ये तत्व है जिन्हे अलग अलग ढंग से कहा जाता है मुझे जितना पता है उतने तरीके से मैं यहाँ लिख रहा हूँ

१) जल, अग्नि, वायु, धरती और आकाश
२) जल, अगन, पवन, समीर और क्षित
३) पनि, तेज, हवा, पृथ्वी और गगन

              इन पांच तत्वों की पच्चीस प्रकृति है आपने बहुत से भजन में सुना भी होगा पांच तत्व पच्चीस प्रकृति, जो की निम्नलिखित है


१) जल तत्व की प्रकृति
  • खून/लोही
  • वीर्य/शुक्राणु
  • पिशाब/मूत्र 
  • परसेवा/ भाव
  • प्यार/लाड
२) अग्नि तत्व की प्रकृति 
  • आलस  
  • क्रांति 
  • क्षुधा
  • तृष्णा 
  • निंद्रा 
३) वायु तत्व की प्रकृति 
  • आकुंचन 
  • चलन 
  • वलन 
  • धावन 
  • प्रसारण
४) धरती तत्व की प्रकृति 
  • हड्डिया 
  • मांस 
  • नाड़ी/नश/नब्ज
  • चमड़ी
  • रोये/शारीर के उपर के बाल 
५) आकाश तत्व की प्रकृति
  • भय
  • मोह 
  • काम 
  • क्रोध 
  • शोक 


                ये तो हुए ५ तत्वों की पच्चीस प्रकृति इनके अलावा सर्व प्रथम आते है तीन गुण ये तीन गुण  है 
                              रजो गुण 
                                              सत्व गुण 
                                                                तमो गुण 

                         इन्हे दूसरी तरह से भी कहा जाता है
                             १) रजगुण                   २) तमगुण                   ३) सतगुण 


        चाहे कैसे भी कहे बात यही है 

१) रजो गुण/रजगुण
                            राग और द्वेष क्रोध इस गुण  के अंतर्गत आता है हर व्यक्ति में इसकी उपलब्धि है ही 

२) सत्व गुण/सतगुण
                            सुख और ज्ञान की अनुभूति इसी गुण के कारन होती है हर व्यक्ति में ये भी होता है ही!

३) तमो गुण/तमगुण
                           यह गुण भेद मोह उत्पन्न करता है और बुद्धि को अविवेकी जैसा कर देता है यह समय  भी बहुत से व्यक्ति ने महसूस किया ही होगा 


                                  उपरोक्त तीनों ही गुण हर व्यक्ति प्राणी में देखने मिलते है ही हम यहाँ पे मनुष्य को लेकर ही चर्चा कर रहे है इसीलिए फ़िलहाल सिर्फ मनुष्य की बातों को लेकर ही हम अपनी बातों को आगे बढ़ाएंगे!

                                    व्यक्ति चाहे कोई भी हो इन्ही पांच तत्व, तीन गुण, और पच्चीस प्रकृति का ही मिला-जुला स्वरूप होता है! और ये सभी वस्तु हर एक में निहित ही है! सब से पहले तो ये गाँठ मार लो की इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति समझदार हो या पागल हो पर समय के अनुसार अपनी उम्र में आते ही वह इन सभी दोषो में घिरता है ही कोई भी बाकत रहता नहीं मतलब बचता है ही नहीं! तो यदि कोई कहता है की वह ब्रह्मचारी है! सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र है! उसे कोई मोह नहीं है! लोभ नहीं है! कोई नशा नहीं है तो वह व्यक्ति झूठ ही बोल रहा है! क्योंकि इस संसार में यदि आप ने जन्मा लिया है तो ये तीन गुण और २५ प्रकृति आप को मिली ही है और ये सभी चीज़े आप के साथ होनी ही है इसीलिए आप इनसे बच नहीं सकते है!

                    अब आप सोच रहे होंगे की अगर बच नहीं सकते है तो कैसे आगे चला जाये! तो इसका जवाब है!

                    पहले तो ये समझ के चलिए की हर वस्तु की हर गुण की विशेषताएँ है और उसकी एक हद है, दायरा है उस दायरे में रह के और उसका सही से इस्तेमाल कर के ही हम आगे बढे तो ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है! हर व्यक्ति में इन सबका होना जरुरी है इन्हे प्रकृति कहा जाता है क्योकि ये सभी जानते है प्रकृति बलशाली है और प्रकृति अपने आप में बदलती है कोई जबरदस्ती/जानबूझकर इसे बदलने की कोशिश करता है तो कोप का सामना करना पड़ता है उसे! ठीक उसी प्रकार कुछ मामलो में क्रोध! कुछ में काम! कुछ में मोह! कुछ में लोभ; इन सभी की जरुरत पड़ती है ही! ये  सभी बाते थोड़ी अटपटी लगती है लोग सोचते है देखो ये क्या कह रहा है भरी सभा में किस तरह से बात कर रहा है परन्तु शब्दों की मर्यादा और सत्य को अपनाते हुए यदि देखा जाये तो ये बाते ही सच है और इन्हे हम अपने अंदर मानते है जाहिर में नहीं!

              पहले तो व्यक्ति को चाहिए की सत्य को स्वीकार करे, व्यक्ति में सत्य को स्वीकार करने की ताकत होनी चाहिए! हर चीज़ का अपना महत्व होता है अपनी विशेषता होती है! अपनी मर्यादा होती है! जैसे समझने के लिए लिख रहा हूँ की यदि आप में "काम" (रतिक्रिया) का गुण  हो ही नही या सभी इसका त्याग कर दे तो क्या दुनिया आगे बढ़ेगी नहीं बिलकुल नहीं बढ़ेगी यानि की ये तो होना ही है परन्तु कितना??? जी हां कितना तो सब से पहले बात आएगी की जरुरत के हिसाब से और अपनी मर्यादा में और समाज में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखते हुए! ये क्रिया पत्नी(अर्धांगिनी) जिसे कहते है सिर्फ उसके साथ में उसकी सहमति के हिसाब से ही होती है! और समाज, परिवार, कुल को आगे बढ़ने भर की इच्छा के हिसाब से ही होना चाहिए! इससे अधिक यदि यह बात तुम्हारे मस्तिष्क में घर करती है तो आप इसके ग़ुलाम बन रहे है और मानसिक रोगी हो रहे है और समय रहते इसका सही इलाज करा लीजिए वर्ना जैसा की मैंने पहले ही कहा था की आप कोप के भागी होंगे!

          दूसरी वस्तु आती है क्रोध तो इसका भी अपना खेल है अपने नियम है! यदि आप नियम में है मर्यादा में है तो ये आप को उठाएगी वर्ना गिराएगी! धर्म, स्त्री, देश, स्वाभिमान इन वस्तुओं में क्रोध निश्चिन्त ही आता है और आना भी चाहिए इन चीज़ो को सँभालने के लिए क्रोध की अपनी भूमिका है!  यदि इन विषयों में क्रोध नहीं आता है तो भी लोग आप को नपुंसक ही जानेंगे परन्तु अगर इन बातों के अलावा किसी भी बात में सही बात में आप को क्रोध आता है हद के बाहर आता है जिनसे आप अपनी और अपने समाज धर्म को आहत पहुंचाते है वह क्रोध किसी काम नहीं है! जिस क्रोध से किसी का भला न हो वह किसी काम का नहीं! भला होने का अर्थ यह नहीं की यह भला किसी व्यक्ति विशेष का ही हो भला सही मायने में सही तरीके से लोगो से जुड़ा होना चाहिए यदि व्यक्ति विशेष से भी जुड़ता है तो सही दिशा में होना चाहिए और ये दिशा कैसी होनी चाहिए ये समझाने की जरुरत तो आप को है नहीं! इसीलिए यदि आप सही अनुपात में है तो ठीक वर्ना समय रहते इसका सही इलाज करा लीजिए वर्ना जैसा की मैंने पहले ही कहा था की आप कोप के भागी होंगे!

          तीसरी वस्तु आती है  मोह तो ये तो ऐसी वस्तु है की इसके बिना कुछ है ही नहीं! इसकी दिशा (टारगेट) सही होना चाहिए क्योंकि हर वस्तु के मोह में पड़ के अपने आप को खो देना बेहद ही दुखदायी होता है ! यदि मोह न हो तो व्यक्ति सुधर नहीं सकता है कर्म को करता ही नहीं है! मोह के कारन ही वह बहुत से कार्य को करता है इसे इस तरह से समझ सकते है की किसी के प्रेम पड़  कर किसी मोह में फंस कर ही व्यक्ति अपने आप को उठाने का काम करता है फिर वह भोजन का मोह हो स्त्री का मोह हो पैसो का मोह हो या परमात्मा को मोह हो, मोह तो होना ही है! मोह अपनी चरम सीमा से भी उपर सिर्फ और सिर्फ परमात्मा में लगे तो उसके लिए कोई बंधन रहता है नहीं! क्योंकि परमात्मा किसी भी बंधन से पर है! वहां तुम्हारा मन तन धन सब कुछ न्योछावर कर देना भी कम ही लगता है! किसी भी तरीके से सोचे तो उसके आगे कुछ दीखता नहीं है तो यहाँ पे आप की कोई भी प्रभु भक्ति को स्वीकार कर लेता है! परन्तु इनके अलावा दूसरे किसी भी बात में मोह का अधिक होना घातक ही सिद्ध होता है और वस्तु को बिगाड़ता है! इसीलिए मोह के मर्यादा को जान कर उसके हिसाब में ही चलना चाहिए!
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